“मानवता”
कौन कहता है कि मानवता
मिट चुकी है
कहीं कहीं पर ये सो गई है
खास कर इन्सानों में
ज़रूरतों,जज्बातों,जिम्मेदारियों
की परतों में दब कर खो गई है
फिर भी बीच बीच में ये सिर उठाती है
अपने होने का अहसास कराती है
मैं देखती रह गई
एक गाड़ी आती है
सड़क पार करते कुत्ते को टक्कर मार
अनदेखा कर गुज़र जाती है
पर उसी समय मानवता एक राहगीर
का रूप घारण कर
घायल कुत्ते को अस्पताल ले जाती है
और इस वाकये के साथ
अमानवियता पिट चुकी है
कौन कहता है कि मानवता मिट चुकी है
अब एक आपबीती बताती हूँ
आगरा जाना था बेहद ज़रूरी
रेल की टिकट भी खरीदी थी पूरी
छोटे बच्चे भी थे साथ
पर रैली वाली भीड़ के चलते
रेल मे चढ़ने की तमन्ना
रह गई नितान्त अधूरी
रेल के चालक ने ं जो हमको देखा
ताड़ ली पल में ही मजबूरी
बैठा के इन्जन मे हमको
पाट दी थी वो मीलों की दूरी
और इस सच्चे किस्से से भी
मानवता हिट हो चुकी है
कौन कहता है कि मानवता मिट चुकी है.
अपर्णा धपलियाल”रानू”