मानवता
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आज नर नराधम निज
स्वार्थ में क्यो खो रहा है,
बन पिशाचर लालसा में
अपने मगन क्यो हो रहा है।
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काँपती हुई इस धरा को
क्यो देख इंसा जगता नही,
मूंद बैठे है सबने आँखें
बियाबान चमन ये हो रहा है।।
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दिल मे काँटे, मन मे ईष्या
है बिखेरा क्यों हलाहल,
छोड़ कटुता , कपट, छल जो
हो जाये हम भी आज निच्छल।
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नामों निशान मिट जाएगा
मतभेद जाती धर्म का,
फिर बहेगा प्रेम पावन
ले पवन भी संग निर्मल।।
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ना करो इन्तेजार कोई
यहाँ राम, गौतम बुद्ध का,
है समय तो आज केवल
निज आत्मा मन शुद्ध का।
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खुद करो अब प्रण की
समभाव हो हर दृष्टि का,
आओ “चिद्रूप” संग जलाओ
चिराग एक नए सृष्टि का।।
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©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २५/१०/२०१८ )