मानवता
मानवता
होता जाता जीवन मुश्किल
लोग यहां पर अटे पड़े।
बिना बात आपस में भिड़ते
युद्ध हेतु वह डटे पड़े।
जीवन देने की शक्ति नहीं
पर लेना जीवन है आता।
यह धरती हो खुशहाल शान्त
ऐसा उनको कब भाता?
होड़ में पागल इक दूजे के
मानवता से हटे पड़े।
फुटपाथों पर सोते कितने
दिखलाई ना देता है।
छत होता है अम्बर उनका
सड़कों पर सो लेता है।
दम है तो इनके हित कर तू
पट भी जिनके फटे पड़े।
लड़ते भिड़ते नित आपस में
कितने हैं जाते मारे।
धरा सोचती सिर को पकड़े
अपने जाये से हारे।
त्रस्त हुई चीत्कार करें फिर
कितने टुकड़े कटे पड़े।
डॉ सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली