मानवता
मानवता-
हम कहां ढूंढे
राजनीति के तंग गलियारे में
है जहां-
असत्य/बेईमानी/ भ्र्ष्टाचार की
गंगोत्री अविरल वेग के साथ गतिशील ..!
आतंकी आक्रमण के शिकार
निरपराध लोगों की लाशें
नोच- नोचकर
खाल उधेड़ने वाले ( बहुरूपिए )
सफेदपोशों की भीड़ में…!
निर्धन समुदाय का ‘हक’ छिनने वाले ( शोषण वादी )
माफियाओं/ठेकेदारों के संगठित समूह के मध्य..!
गणतंत्र को ‘ गन-तंत्र’ में विलोपित कर
देश में ‘लूटतंत्र’ स्थापित कर
तिजोरियां भरने वाले
‘जन-नायकों’ की ( बेशर्म ) जमात के इर्द गिर्द..!
बड़ी बड़ी डिग्रियां लिए सड़कों
की ख़ाक छानते
बेरोजगारी/बेकारी से से त्रस्त
युवा पीढ़ी- व्यर्थ गंवा रही जो
ऊर्जा अपनी
कहीं मोबाईल पर घण्टों चैटिंग
करते हाथ
तो कहीं नशे में झूमते पियक्कड़ों की जमात
क्या यही है मानवता का वास..?
मासूम/नॉनिहालो को कल-कारखानों में
झोंकने को बाध्य देश का ‘भावी भविष्य’ दांव पे लगाने वाले
माता पिता या बहन/भ्राता की
भूख से व्याकुल आंखों में..?
मानवता-
दिखती नहीं अब कहीं
लुप्तप्राय हो गई वह-
मानवों ने लज्जित बहुत किया है उसे
और वह-
अपना अस्तित्व समेटने को हुई है विवश……?
‘खामोशी’
मेरे-
शहर के लोगों ने
ओढ़ ली है चादर
खामोशियों में डूब सा
गया है इक शहर!
मौन व्रत रखा है जैसे सबने
चुराने निकले हो सबके सब
औरों के सपने!
किसे फुर्सत है यहां अब
दूसरों के दुःख दर्द सुनने की
ग़म बहाने कन्धा देने की
‘रिश्तों’ का कोई नाम लेवा नहीं
बिन पैसे मिलती
माँ बाप को भी सेवा नहीं!
एक ही घर में दीवारें कम है
लोगों के दिलों के बीच
चौड़ी हुई है नफरतों की खाई!
मेरे शहर के लोग यथावत
सबकुछ कर रहे हैं क्योंकि
अब किसी को फुर्सत नहीं है भाई!!
-मोहम्मद मुमताज़ हसन
रिकाबगंज, टिकारी, गया
बिहार -824236