मानवता जिंदा है
मानवता जिन्दा है
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रविकेश पढ़ने में जितना मेधावी था,उतना ही मेहनती और मिलनसार भी।सभी बच्चे उससे दोस्ती करना चाहते थे। सबके साथ घुल-मिल कर रहना उसका नैसर्गिक स्वभाव था। दुर्गुण नाम की तो कोई चीज उसके पास थी ही नहीं। वह लगन से पढ़ता तथा हमेशा वर्ग में प्रथम आता। विद्यालय में जितनी भी परीक्षायें होतीं, सबमें अव्वल आता।उसे हर बार कोई न कोई पुरस्कार मिलता ही।सभी शिक्षक उसकी प्रशंसा करते नहीं थकते। नम्रता और संस्कार भी उसमें कूट-कूटकर भरे थे।पर उसका दुर्भाग्य यह था कि उसके पिताजी का हाथ उसके सर पर नहीं था।वे असमय ही एक दुर्घटना में स्वर्ग सिधार गये थे। खैर,माँ ने हर एक प्रयास किया और पिताजी की कमी कभी खलने नहीं दिया।
आर्थिक तंगी का सामना करते हुए भी माँ यह सोचकर खुश होती थी कि उसका बेटा अच्छा कर रहा है यानी परिश्रम सफल हो रहा है। रविकेश भी दिन-रात एक किए हुए था। परिणाम भी सामने आया।मैट्रीक की परीक्षा में वह अपने जिले में टॉप किया।जिला कलक्टर ने उसे सम्मानित किया और नगद पुरस्कार भी दिए।वह अपनी पढ़ाई जारी रखा और माइक्रोबायोलॉजी में स्नातक करने के बाद एक प्राइवेट दवा कंपनी में मोटी तनख्वाह पर नौकरी भी कर ली। माँ का सपना साकार हो गया।अब वह शीघ्र ही उसका विवाह कर घर में बहू लाने को उत्सुक थी।पर विधि को कुछ और ही मंजूर थी।भाग्य का लिखा आखिर कौन टाल सकता है!
एक दिन रविकेश अपने ऑफिस जा रहा था। अचानक उसकी नजर एक बच्चे पर पड़ी जो खेलने के चक्कर में एक ट्रक के नीचे आने ही वाला था।वह दौड़कर बच्चे के पास पहुँचा तथा झपट्टा मारकर अपनी ओर खींचा।पर उसका संतुलन बिगड़ गया और बच्चा तो बच गया,पर वह खुद ट्रक की चपेट में आ गया। उसके दोनों पैर बुरी तरह कुचल गये। वह दर्द से छटपटाने लगा। वहाँ उपस्थित लोगों ने उसको किसी तरह अस्पताल पहुँचाया।चिकित्सकों ने उसे बचाने में जी-जान लगा दी।
रविकेश की जिंदगी तो बच गयी,पर उसके पैर बेकार हो गए। वह पराश्रित और लाचार हो गया। अब बिना बैशाखी वह नहीं चल सकता था।कंपनी ने भी कुछ मुआवजा देकर नौकरी से उसे हटा दिया।
माँ के सारे सपने चूर-चूर हो गये।अब वह अपने बेटे के भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगी।इधर रविकेश स्वयं की जिंदगी को फिर से पटरी पर लाने के लिए संघर्ष करने लगा। उसने हिम्मत नहीं हारी।शीघ्र ही अपने आप को तैयार किया तथा एक निजी विद्यालय में शिक्षक के रूप में उसने अपनी सेवा देने के साथ जिंदगी की नयी पारी शुरू की।
उसी विद्यालय में एक शिक्षिका थी रोमा।रोमा भी अनाथ थी तथा अपने मौसी के घर रहकर किसी प्रकार अपनी जीवन-नैया खे रही थी। धीरे धीरे उसे रविकेश में दिलचस्पी हो गयी। रविकेश का भोलापन, उसकी उच्च योग्यता- क्षमता, उसका मधुर व्यवहार,उसकी ऊँची सोच व दूरदृष्टि ,उसकी संघर्षशीलता,किसी काम को करने की बारीकी तथा सकारात्मक व्यक्तित्व- सब उसे प्रभावित करते थे।वह रविकेश से अगाध प्यार करने लगी। रविकेश भी यह समझता था,पर वह अपनी शारीरिक अक्षमता से भी भली भाँति अवगत था।वह किसी भी कीमत पर किसी की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करना नहीं चाहता था। इसलिए वह नज़रंदाज़ करता रहा।
धीरे धीरे रोमा का प्रेम परवान चढ़ने लगा।अब वह दिन-रात रविकेश के प्रेम में डूबी रहती थी। आखिर एक दिन उसने रविकेश से शादी का प्रस्ताव कर ही दिया। रविकेश ने अपनी लाचारी बतायी,पर रोमा ने रविकेश की माँ के द्वारा दबाव बनाया और दोनों विवाह के बंधन में बँध गए।
प्रारंभ में तो रोमा ने रविकेश के साथ वैवाहिक जीवन को आनंददायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। रविकेश भी रोमा के साथ नये-नये सपने देखने लगा।दोनों का जीवन सुखमय बीतने लगा।लगा जैसे दुख की बदरी छँट गयी। अब सुख के वसंत का आगमन हो गया है।इस बीच रोमा की नौकरी एक सरकारी माध्यमिक विद्यालय में स्नातक शिक्षक के रूप में लग गयी।अब वह और भी खुश रहने लगी। उसने इसका श्रेय रविकेश को ही दिया।लोग रोमा के प्रेम और परिश्रम की प्रशंसा करते नहीं थकते।
समय बीतने के साथ ही रोमा के व्यवहार में परिवर्तन आने लगा।अब वह अपना अधिकांश समय घूमने-फिरने में बिताने लगी। रविकेश को संकट का आभास होने लगा। उसे समझने में देर न लगी कि रोमा उस जैसे लाचार के बदले किसी और को चाहने लगी है।अब बात-बात में रोमा की झल्लाहट सामने आने लगी। रविकेश से उसकी दूरी बढ़ती जा रही थी। प्यार छुपता थोड़े ही है।शीघ्र ही रविकेश जान गया कि रोमा अपने विद्यालय के ही एक शिक्षक से दिल लगा बैठी है।उसने फ़ैसला लेने में देरी नहीं की। उसनेे रोमा को तीन वर्षों तक उसके साथ वैवाहिक जीवन के लिए धन्यवाद किया तथा नया जीवन शुरू करने के लिए खुद ही मुक्त कर दिया। रोमा तो इसके लिए पहले से ही पैंतरे अपना रही थी।उसे उम्मीद भी नहीं थी कि इतनी आसानी से उसे अनुमति मिल जाएगी।उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा और वह उस शिक्षक से शादी कर रविकेश से सदा के लिए अलग हो गयी।
रविकेश को जोर का धक्का लगा।इस घटना से वह कुछ टूट-सा गया।पर,माँ को देखकर तुरंत सँभल गया। माँ तो जैसे इस सदमे को बर्दाश्त ही नहीं कर सकी। उसने माँ को दुनियादारी समझायी तथा उसके संघर्ष को याद दिलाकर घाव भरने की कुछ कोशिश की। माँ ने इतने दुख झेले थे कि इस कष्ट से उबरने में भी अधिक समय नहीं लगा।माँ ने अपने जीवन में आए कष्टों को याद कर स्वयं को दिलाशा दिलाने की कोशिश की कि जिस प्रकार दिन बिगड़ते समय नहीं लगता ,उसी प्रकार दिन बनते भी समय नहीं लगता। वह खुद तो सँभली ही, रविकेश को भी कुछ ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित की ताकि समाज उसके योगदान को जल्दी भुला न सके।
रविकेश अब भी निजी विद्यालय में पढ़ाता था क्योंकि वही उसके परिवार के भरण-पोषण का एकमात्र साधन था।पर उसका मन हमेशा बेचैन रहता था।वह हरदम कुछ न कुछ सोचता रहता था।वह कुछ विशेष करना चाहता था पर अगले ही पल अपनी शारीरिक अक्षमता से निराश हो जाता था।फिर भी मन में यह संकल्प पक्का था कि कुछ करना है जरूर।
एक दिन वह सवेरे अपने घर के सामने बैठा कुछ विचार कर रहा था कि आठ-दस वर्ष के तीन बच्चे कूड़े के ढेर में से कबाड़ चुनते दिखाई दिए।उनके एक हाथ में प्लास्टिक के बड़े-बड़े बोरे थे। दूसरे हाथ से वे कूड़े को छितारकर अपने काम लायक प्लास्टिक,गत्ता,शीशा तथा धातु के सामान होड़ लगाकर चुन रहे थे।वह उन कम उम्र के बच्चों को इतनी मस्ती में कबाड़ चुनते देख काफी प्रभावित हुआ।उसका मन उनके हौसले को सलाम करने का हुआ।वह उठकर उनकेे पास गया तथा उनसे बातें करने लगा।बात के क्रम में जो जानकारी आयी, उससे रविकेश चौंक गया।वे सभी बच्चे या तो अनाथ थे या उनके घर में खाने को कुछ भी नहीं था।गरीबी तो उनको देखकर ही झलकती थी। फटे-पुराने चिथड़े पहने ये बच्चे फिर भी मस्त थे।उनके चेहरे पर थोड़ी भी सिकन न थी।वे भोजपुरी फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए मजा भी ले रहे थे और आपस में हँसी-ठिठोली भी करते थे।जब रविकेश उनकी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा,तो सबने एक साथ सिर हिला दिया। रविकेश के लिए यह खतरे का संकेत था।उसे कई घटनायें याद आ गयीं,जब ऐसे ही बच्चे बड़े होकर खूँखार अपराधी बन जाते हैं। उसके मन में तुरंत बात आयी कि इन बच्चों के लिए कुछ करना चाहिए।पर ये तो मेरी बात मानेंगे नहीं! इसलिए सबसे पहले इनसे दोस्ती करनी चाहिए। यदि अच्छी दोस्ती हो गई,तो मैं जो कहूँगा ये अवश्य मानेंगे।
फिर क्या था। रविकेश उन तीनों बच्चों से गप्पें मारने लगा।वे रविकेश की बातों पर विशेष ध्यान नहीं दे रहे थे। ऐसे बच्चे भी न थोड़ा चालू किश्म के होते हैं।जल्दी किसी पर भरोसा नहीं करते। बात बनाने में माहिर तो होते ही हैं,समय से पहले वयस्कता के बहुत सारे लक्षण भी उनमें दिखाई देने लगते हैं। कुछ तो परिवेश, कुछ परिस्थिति, कुछ अभिभावकत्व की कमी और कुछ बुरी संगति के कारण उनका ऐसा विचित्र व असामान्य-सा व्यवहार स्वाभाविक ही लगता है।समय से पूर्व जिम्मेदारी की बोझ उन्हें जीवन का संघर्ष तथा बहुत कुछ चालाकियाँ भी सिखा देती है।वे आत्मनिर्भर बनने के चक्कर में कभी कभी ग़लत राह भी पकड़ लेते हैं।समाज के कुछ पेशेवर लोग अपने स्वार्थ के लिए उनका गलत इस्तेमाल भी किया करते हैं। यदि समय पर सही दिशा नहीं मिले तो कुल मिलाकर ऐसे बच्चों के बिगड़ने की संभावना ही अधिक रहती है। रविकेश इनके भविष्य को लेकर बहुत चिंतित था।
रविकेश उनसे बातें करता रहा।वे कूड़े-कचरे में से कबाड़ निकालते हुए कभी उचित तो कभी बेढंगा सा उत्तर देकर हँसने लगते थे।पर रविकेश प्रेम से उन्हीं के जैसा गप्पें मारता रहा।जब वे जाने को हुए,तो रविकेश ने उनसे कुछ नाश्ता करने का आग्रह किया।वे आश्चर्यचकित हो कर उसे देखने लगे। उन्हें लगा कि यह कौन-सा विचित्र आदमी है जो हमें नाश्ता करने को कह रहा है।लोग तो हमको कचरे के ढेर पर से भी भगाने के चक्कर में लगे रहते हैं। तीनों आपस में एक दूसरे को देखकर जैसे मौन वार्तालाप किए और फिर नाश्ता के लिए राजी हो गए।चलो, देखते हैं। देखने में क्या लगता है अपना!
वे तीनों रविकेश के साथ उसके घर गये। रविकेश ने उन्हें बिस्किट तथा भुजिया खाने को दिया। इस बीच बहुत सारी बातें भी होती रहीं।जाते समय रविकेश ने उनसे रोज इसी समय उसके घर नाश्ता करने का आग्रह दुहराया जिसे वे सहजता से मान गये। हालाँकि वे मन ही मन विचार भी कर रहे थे कि यह आदमी हमलोगों को आखिर खिला क्यों रहा है!खैर!
अगले दिन रविकेश सुबह से ही उनकी प्रतीक्षा करने लगा। अचानक कचरे की ढेर पर हलचल बढ़ी।वह आगे बढ़कर देखा तो वही तीनों लड़के थे।वे उस घर की ओर देख रहे थे,पर संकोचवश जा नहीं रहे थे। रविकेश के बुलाने पर वे आये। फिर रविकेश ने नाश्ता कराने के साथ कुछ चर्चायें की।अब यह सिलसिला रोज चलने लगा।कुछ ही दिनों में तीनों बच्चे रविकेश से खूब घुलमिल गए।अब वे रविकेश की बात को न सिर्फ सुनते,बल्कि उसकी सहायता को भी तत्पर रहते। रविकेश प्रतिदिन उन्हें नाश्ता कराता तथा घर-परिवार, नाते-रिश्तेदार, फिल्म-सिनेमा, नाच-गान, साफ-सफाई आदि से संबंधित बातें किया करता था।वे रविकेश की बातों पर कम-अधिक अमल भी करने लगे।अब वे पहले की अपेक्षा साफ दिखते थे।वे ठीक ढंग से बात भी करते थे। रविकेश को ये बातें काफी सकारात्मक लगती थीं।
एक दिन रविकेश ने उनकेे मन को टटोला कि पढ़ाई-लिखाई के बारे में उनकी क्या राय है। रविकेश को जानकर प्रसन्नता हुई कि वे तीनों पढ़ना चाहते थे पर उनका काम ऐसा था कि वे समय पर स्कूल नहीं जा सकते थे। रविकेश ने इसका हल निकाला कि रोज शाम को तीन बजे वे रविकेश के घर पर आयेंगे और रविकेश उन्हें खुद पढ़ाएगा।वे तीनों सहमत हो गए तथा प्रतिदिन आने लगे। सबेरे वे कबाड़ इकट्ठा करते।उसे ले जाकर सेठ की गद्दी पर बेचते। फिर घर जाकर नहाते-धोते, खाना-पीना करते तथा ठीक तीन बजे रविकेश के पास पहुँच जाते। रविकेश भी उस समय तक विद्यालय से लौटकर तैयार रहता। पहले तो वह ज्यादातर कहानियाँ ही सुनाता था।पर धीरे-धीरे अक्षर ज्ञान भी देने लगा। उसने उनके लिए कॉपी-कलम व किताबों की व्यवस्था भी कर दी।अब पढ़ाई नियमित होने लगी।शीघ्र ही उनमें अच्छी प्रगति दिखने लगी।
एक दिन रविकेश ने उन बच्चों से उनके कबाड़ चुनने वाले और दोस्तों के बारे में पूछा। उन्होंने बताया कि पूरे शहर में ऐसे पच्चीस-तीस बच्चे हैं,जिनकी उम्र अठारह साल से कम है। रविकेश ने उनसे मिलने की योजना बनाई तथा रविवार को उनसे मिलने कबाड़ी सेठ की गद्दी पर गया। अपने तीनों मित्र बच्चों के साथ सबसे बातचीत हुई।इन तीनों बच्चों ने रविकेश की बहुत प्रशंसा की। उन्हें अपना दोस्त,अभिभावक तथा गुरु बताया।उन बच्चों को राजी करने के लिए कुछ ज्यादा ही बोल जाते थे कभी कभी।पर रविकेश को भी किसी तरह इन बच्चों को पढ़ने के लिए राजी करना था।कहा जाता है कि नेक काम में कुछ झूठ भी बोलना पड़े,तो चलता है।खैर,उन बच्चों ने उन्हें भी शाम को रविकेश के घर पर आने के लिए प्रेरित किया। प्रारंभ में कुछ ना-नुकूर के बाद वे मान भी गये। आखिर कौन पढ़- लिखकर अच्छा बनना नहीं चाहता ? यदि सुख की संभावना दिखे,तो कुछ समय के लिए लोग कष्ट भी सह लेते हैं।दूसरों की अच्छाई देख-सुनकर इंसान स्वयं भी अच्छा बनना चाहता है,यह स्वाभाविक ही है।अपने साथी बच्चों की बात से प्रभावित हुए बिना वे भी नहीं रह सके। आखिरकार अधिकांश बच्चे पढ़ने आने के लिए राजी हो गये।
अब बीस-पच्चीस बच्चे प्रतिदिन रविकेश के पास आने लगे। रविकेश पढ़ाई के साथ ही उनको कभी कहानियाँ सुनाता, कभी सलीके से रहने के लिए प्रेरित करता तथा कभी खेल खेलने को भी तैयार करता। प्रारंभ में तो कई बच्चे बहुत गंभीर नहीं थे,पर धीरे धीरे सभी बच्चे पढ़ाई पर ध्यान देने लगे। उनमें आशा से अधिक तेज प्रगति होने लगी।साल भर के भीतर ही सभी बच्चे तीसरा वर्ग के स्तर की शिक्षा प्राप्त कर लिए।
अब तक सभी बच्चे रविकेश को अपना अभिभावक तथा गुरु मान चुके थे।उनके पास कोई समस्या होती,तो उसके समाधान के लिए वे रविकेश के पास ही आते। रविकेश जैसा परामर्श देता,वे उसी अनुरूप काम भी करते। धीरे धीरे रविकेश ने सबको विद्यालय में पढ़ने के लिए राजी कर लिया।सबका नामांकन समीप के सरकारी विद्यालय में हो गया।अब वे सभी लड़के सवेरे आठ बजे तक ही कबाड़ इकट्ठा करते। फिर नहा-धोकर विद्यालय जाते और शाम को रविकेश के साथ पढ़ाई और मस्ती करते।उन बच्चों में आशातीत प्रगति हुई।उनका रहन-सहन तथा संस्कार भी बदल गया।उस मुहल्ले में जब भी कोई पर्व-त्योहार आता, रविकेश के निर्देश पर वे सफाई करते, रंगोली बनाते तथा सबको प्रणाम कर शुभकामना भी देते।प्रत्येक ऐसे अवसर पर रविकेश उन बच्चों के साथ ही खुशियाँ मनाता। प्रारंभ में तो मुहल्लेवासियों को रविकेश का यह काम बेकार लगा,पर अब परिवर्तन देखकर वे भी उसकी न सिर्फ प्रशंसा करने लगे, बल्कि कुछ तो सहयोग की भी पेशकश करने लगे।कुछ लोगों ने तो अपने बिगड़ैल बच्चों को सुधारने का दबाव भी बनाया।पर रविकेश चुपचाप अपने काम में लगा रहा।वह बच्चों को पढ़ाता रहा, संस्कारित करता रहा तथा उनके लिए सुविधाओं की व्यवस्था करता रहा। आर्थिक तंगी न हो, इसके लिए वह अपने मुहल्ले के लोगों से उनके बच्चों की पढ़ी गयी पुरानी पुस्तकें तथा स्टेशनरी माँगता तथा उसका उपयोग उन्हें पढ़ाने में करता।
तीन साल के बाद पहली बड़ी सफलता मिली जब एक साथ दस बच्चे नवोदय विद्यालय प्रवेश परीक्षा में सफल हुए।पूरे शहर में तहलका मच गया कि कबाड़ इकट्ठा करने वाले दस बच्चे कैसे परीक्षा उत्तीर्ण हो गये। अगले दिन अखबार में बच्चों के चित्र के साथ समाचार छपा। नवोदय विद्यालय के प्राचार्य तथा जिला पदाधिकारी उनके घर आकर सभी बच्चों से मिले, उनके बारे में जाने तथा रविकेश और बच्चों को सम्मानित भी किए। रविकेश को पहली बार अपने आप पर गर्व की अनुभूति हुई।
अब मुहल्ले के लोगों का भी दबाव बनने लगा कि उनके बच्चों को भी रविकेश पढ़ाए। रविकेश ने एक शर्त रखी कि सभी सेवानिवृत्त अभिभावक भी शाम को पढ़ाई के दौरान उपस्थित रहेंगे। सबने सहर्ष स्वीकार किया।एक बड़ा स्थान भी निश्चित कर लिया गया-मंदिर का प्रांगण।अब शाम को मुहल्ले भर के मैट्रीक तक के सभी बच्चे,बच्चियाँ भी, मंदिर प्रांगण में एकत्र होते तथा अंधकार होने तक पढ़ाई होती। रविकेश ने नयी व्यवस्था विकसित की।सौ सवा-सौ बच्चों को अकेले पढ़ा पाना संभव नहीं था, इसलिए वर्गावार बच्चों को बैठाकर उनके लिए उपयुक्त सेवानिवृत्त अभिभावकों में से एक-एक को निश्चित किया तथा स्वयं घूम-घूमकर सबको यथोचित मदद करता था। रविवार तथा छुट्टी के दिन दिनभर स्वयं विशेष कक्षा आयोजित करता था तथा कमजोर बच्चों को आवश्यकता के अनुसार उचित मार्गदर्शन करता था। उसने इसके लिए एक पुस्तकालय की भी व्यवस्था की तथा सबसे आग्रह किया कि प्रत्येक वर्ष परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद सभी बच्चे अपनी पुरानी पुस्तकें पुस्तकालय में दान करें। इससे गरीब बच्चों को नि:शुल्क पुस्तकें मिल जातीं तथा अतिरिक्त धन खर्च नहीं करना पड़ता। उसनेे प्रत्येक परिवार में सम्पर्क किया, विशेषकर दलित व वंचित वर्ग के घरों में तथा एक-एक बच्चे को पढ़ने के लिए राजी कर लिया।अब उस मुहल्ले में सभी बच्चे पढ़ाई करने लगे। मंदिर प्रांगण शाम को विद्या मंदिर के रूप में बदल गया,जहाँ बच्चों के साथ उनके अभिभावक भी उपस्थित रहते। छुट्टी के समय एक अच्छा इंसान बनने के लिए आवश्यक गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाता तथा प्रत्येक दिन एक बच्चे को उसके सम्यक आचरण के लिए आज का आदर्श बालक के रूप में चिह्नित कर सम्मानित भी किया जाता।इसको परखने के लिए मुहल्ले के वरिष्ठ लोगों की एक समिति बन गयी,जो मुहल्ले भर के बच्चों के बारे में पूरी जानकारी एकत्र करते थे। कुल मिलाकर वह मुहल्ला एक आदर्श परिवार के रूप में विकसित होने लगा,जहाँ सभी लोग एक-दूसरे के बारे में अच्छा सोचने लगे। कोई भी पर्व-त्योहार हो,या पारिवारिक उत्सव सभी एकसाथ मिलकर उसे सफल और यादगार बनाने में जुट जाते।यहाँ तक कि पुराने वाद-विवाद भी आपसी पंचायती द्वारा सुलझाया जाने लगा।
बच्चों का उत्कृष्ट प्रदर्शन जारी रहा। नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल जैसी प्रवेश परीक्षाओं में तो सफलता मिलती ही थी,राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित विभिन्न प्रतियोगिताओं में ये बच्चे पुरस्कार जीतने लगे।मैट्रीक की परीक्षा में तो शत-प्रतिशत बच्चे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने लगे।जिले के टॉपर भी प्राय: इन्हीं बच्चों में से कोई होता। रविकेश की गिनती शहर के प्रतिष्ठित लोगों में होने लगी। विद्यालय तथा सामाजिक संस्थायें उन्हें ससम्मान बुलाकर उनका मार्गदर्शन लेतीं तथा उनकी उपलब्धियों के लिए उन्हें सम्मानित करतीं। देश-प्रदेश की कई संस्थाओं ने उनके इस नि:स्वार्थ कार्य के लिए उन्हें पुरस्कृत किया। पत्र-पत्रिकाओं में उनसे संबंधित समाचार सामान्य बात थी।इतना सब होने के बाद भी रविकेश अपने मिशन को निर्बाध गति से चलाते रहे।उनका निश्चय था कि यह कार्य वे तबतक करते रहेंगे जबतक कि वे चेतनशील हैं।
एक दिन शाम को अध्ययन-अध्यापन का कार्य चल रहा था कि अचानक गाड़ियों का एक काफिला आता दिखाई दिया। सबको उत्सुकता हुई।सभी गाड़ियाँ आकर मंदिर प्रांगण में रुकीं।अरे, इनमें तो डीएम-एसपी की गाड़ी भी है। वे उतरे।पर यह क्या,ये लोग तो किसी और गाड़ी के पास जा रहे हैं। उस गाड़ी में से एक नौजवान निकला,जिसकी आगवानी डीएम व एसपी खुद कर रहे थे। वह नौजवान बिना किसी से कुछ पूछे,सीधे रविकेश के पास गया। उनको पैर छूकर प्रणाम किया और वहीं जमीन पर बैठ गया। सभी भौंचक थे। आखिर यह आदमी कौन है, जिसकी इतनी सुरक्षा है और यह रविकेश के पास जमीन पर बैठा है।कुछ देर बैठे रहने के पश्चात वह व्यक्ति आँखों मेंं आँसू लिए बोला,” सरजी, पहचाने हमको?”
रविकेश कुछ देर विचार करने के पश्चात कुछ अनुमान लगाते हुए बोले, “अखिलेश?”
वह आदमी रविकेश के पैरों को पकड़कर रोने लगा,”जी, सरजी! मैं वही अखिलेश हूँ,जिस अनाथ को आपने कबाड़ी से इंसान बना दिया।याद है न,यह नाम भी आप ही का दिया हुआ है,वरना आज भी लोग मुझे नकटुआ कबाड़ी नाम से ही बुलाते।”
कुछ पल रुककर वह फिर बोला,” सरजी, नवोदय से इंटर करने के बाद मैं आईआईटी में पढ़ा, फिर स्कॉलरशिप पर अमेरिका चला गया।वहाँ मैंने नैनोटेक्नोलॉजी में रिसर्च किया और एक रिसर्च कंपनी में डायरेक्टर बन गया।बाद में मैंने खुद की कंपनी बना ली।और सरजी,आपके आशीर्वाद से आज मेरी कंपनी टेक्निकल रिसर्च के क्षेत्र में अमेरिका की जानी-मानी कंपनी है। मैं वर्षोंं से आपसे मिलने की सोच रहा था,पर अपने देश आने का समय नहीं मिल रहा था।इस वर्ष प्रवासी भारतीय सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने मुझे विशेष रूप से बुलाया है। इसलिए आया तो पहले आपसे मिले बिना कहीं कैसे जा सकता था?”
“अब तो ऊपर उठो, अखिलेश!”ऊपर उठाते हुए रविकेश बोले। तुम भारत के मेहमान हो।तुम्हें उचित सम्मान मिलना चाहिए।”
“नहीं,सरजी! मैं भारत का मेहमान नहीं, भारत का बेटा हूँ।भारत मेरे दिल में बसा है।मैं अपनी आमदनी का दस प्रतिशत हिस्सा प्रति वर्ष प्रधानमंत्री राहत कोष में भेजता हूँ।और उससे भी बड़ी बात कि मैं आपका शिष्य हूँ।ऐसा शिष्य जिसे आपने गंदगी में से निकालकर चाँद पर भेज दिया।”
“फिर भी…”
“कुछ नहीं, सर जी!आपका आशीर्वाद ही मेरा सम्मान है। मैं आपके लिए एक छोटी सी भेंट लाया हूँ। यदि आप इसे स्वीकार कर लेंगे तो मैं मानूँगा कि आपका आशीर्वाद मिल गया।कृपया अपना हाथ आगे कीजिए।”अखिलेश ने प्रेमपूर्वक आग्रह किया।
“पर आखिर इसमें है क्या?”
“आप हाथ आगे तो कीजिए।एक छोटा-सा उपहार है बस।”अखिलेश अधीर हो रहा था।
रविकेश ने हाथ बढ़ाया।उनके हाथ पर एक छोटा-सा पर्स रखते हुए अखिलेश बोला,”सरजी,इसको नकारकर मेरा दिल मत तोड़िएगा।”
रविकेश ने पर्स खोला ,तो उसमें से कुछ कागज निकले।उसे देखकर सभी अचंभित रह गये। उसमें दो करोड़ रुपये का एक चेक तथा अमेरिका का दो हवाई टिकट था।
“यह क्या है?”रविकेश ने आश्चर्यचकित हो कर पूछा।
“यह रुपये इस विद्या के मंदिर को बनाने के लिए है तथा यह आपको और माताजी को मेरे साथ अमेरिका जाने के लिए है।अब मैं शेष समय आपकी सेवा में बिताना चाहता हूँ।” अखिलेश भावुक होकर बोला।
“तुम्हारा पैसा तो मुझे विद्या मंदिर बनाने के लिए स्वीकार है,पर मैं इस शहर को छोड़कर नहीं जा सकता।यह मेरी जन्मभूमि ही नहीं, कर्मभूमि भी है। मैं अपना अंतिम साँस यहीं लूँगा।और अंतिम समय तक यहाँ के लोगों की सेवा करता रहूँगा।कहीं तुम्हारे जैसा कोई और रत्न कबाड़ में से मिल जाए।”मुस्कराते हुए रविकेश बोले।
“मुझे पता था कि आप बहुत ज़िद्दी हैं।आप मेरे साथ अमेरिका जाने को तैयार नहीं होंगे। इसलिए मेरे पास दूसरा विकल्प भी है।यह लीजिए, सरजी!” अखिलेश एक दूसरा पर्स बढ़ाते हुए निवेदन किया।
रविकेश ने दूसरा पर्स खोला। उसमें एक बंगला,एक गाड़ी और पचास लाख रुपये का चेक था।
रविकेश की आँखों में आँसू छलक पड़े। उसने अखिलेश को गले लगा लिया।और उस पर्स को लौटाते हुए बोले,”अखिलेश, मैं तुम्हें गुरुऋण से मुक्त करता हूँ। मैंने तुम्हें उचित दिशा दिखाकर तुम पर कोई उपकार नहीं किया,बल्कि मैंने अपना कर्त्तव्य निभाया।इस समाज के प्रति मेरी भी कुछ जिम्मेदारी है। मैं इसी का पालन करता हूँ। इसके लिए मुझे कोई लिप्सा नहीं है। इसलिए मैं तुम्हारा कोई भी आर्थिक लाभ स्वीकार नहीं कर सकता। मैं जैसा भी हूँ,खुश हूँ। तुम भी जहाँ रहो, खुश रहो।और हाँ,अपने देश को और अपनी माटी को मत भूलना।”रविकेश का गला रुँध गया।
अखिलेश उनके पास बैठा सिसकियाँ भरता रहा।लोग इस अविस्मरणीय दृश्य को देखकर अभिभूत थे। कुछ लोगों को तो अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।वे अपलक इसके साक्षी बन जाना चाहते थे।
“आज के समय भी ऐसे महान लोग इस धरती पर हैं,तभी तो मानवता जिंदा है।” किसी की आवाज वातावरण में गूँजी।सभी लोग समर्थन में सर हिलाने लगे। रविकेश का अन्तर्मन फूले नहीं समा रहा था।एक दिव्यांग ने उस मुकाम को हासिल किया था,जिसकी कल्पना कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता था।
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