मानव जाति पर.धब्बा क्यों लगा रहा है पुरूष
मानव जाति पर धब्बा क्यों लगा रहा है पुरुष
पुरुषत्व का नाजायज लाभ क्यों उठाता पुरूष
तुम्हारा पौरुष क्यों दिन प्रतिदिन है हीन हो रहा
पुरुषाद तेरे अन्दर क्यों फल फूल रहा है पुरुष
औरत जाति की योनि से तूने जो है जन्म लिया
उसी योनि की लालसा में क्यों तू कुंठित पुरुष
जिसके वक्षों का दूध पी कर तुम हो फले फूले
गंदी नजरों से वक्ष क्यों दुषित है करता पुरूष
आबरू लूट कर तू उनको है जिंदा ही मार रहा
दानव सा दरिंदा क्यों बनता जा रहा है तू पुरुष
कोई रिश्ता औरत का रहा है अब सुरक्षित नहीं
हर रिश्ते की मर्यादा क्यों भंग कर रहा तू पुरुष
अबोध,कच्ची कलियों पर तू कुछ तरस तो कर
फूल बनने से ही पहले क्यों रौंदता है तू पुरुष
प्रकृति की सुंदर रचना के तुम तो संरक्षक था
रक्षक से भक्षक तुम क्यों हो बनते जाते पुरुष
बहन,बेटी तुम पर अब कैसे भरोसा कर पाएगी
उनके भरोसे को क्यों तार तार करता तू पुरुष
समय है, तुम मानव की मानवता को बचा लो
कहीं ऐसा ना हो मानवता अंत तू कर दे पुरुष
मानव जाति पर धब्बा क्यों लगा रहा है पुरुष
पुरुषत्व का नाजायज लाभ क्यों उठाता पुरुष
सुखविंद्र सिंह मनसीरत