माथा ख़राब है
डॉ अरुण कुमार शास्त्री // एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त 8.12 जुलाई 12 दिन सोमवार 2021
माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है
मुझसे मत उलझना मेरा मन बेताब है।।
जबसे हुआ हूँ पैदा मैं जिंदगी से लड़ रहा
अपने पूर्व कर्म का मैं हिसाब सब दे रहा।।
जानता हूँ पागल नहीं हूँ प्रारब्द्ध की दिशा
क्या किये थे कार्य अज्ञान से तब न था पता
मन व्चन और कर्म का बेढव हिसाब है
माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है।।
फेरिस्त क्या करेगी मुआफ़ी भी न मिलेगी
भुगतूँगा सिलसिले से अब ये ही अजाब है
माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है
मुझसे मत उलझना मेरा मन बेताब है।।
उल्फ़त के लुत्फ़ का साहिब स्वाद है गज़ब
जिसने चख़ा नहीं , तो वो शख़्स है अज़ब।।
एक एक पल मेहबूब के साथ का देता बड़ा मज़ा
हैरान क्यूँ है अब जो तुझको मिल रही सज़ा।।
माथा ख़राब है अजि मेरा माथा ख़राब है
मुझसे मत उलझना मेरा मन बेताब है।।
*बालक अबोध हूँ, मैं, मुझको तो होश ही नहीं
कर दिया सो कर दिया, अब सोचता हूँ क्या।।