माता पिता की छाया
गांव का वृक्ष
देता छाया
मुसाफिरों को
फैलता गया शहर
सिमटता गया गाँव
बनने लगीं बल्डिगें बड़ी
कटने लगे वृक्ष बेरहमी से
छाँव को तरसने लगा
इन्सान
ढूंढ़ते थे छाया
पेडों के नीचे
अब ढूंढ़ते हैं
बिल्डिंग्स के कौनों में
मिलता है
प्यार और मोहब्बत
माता पिता से
कब हो जाते हैं
इतने निर्दयी
भूल जाते हैं
माता पिता की छाया
बेसहारा , अकेला
छोड़ जाते हैं बच्चे
अपनी छाया पर भी
मत करो विश्वास
कौन कहाँ देगा धोखा
भरोसा नहीँ
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल