‘माटी मेरे गाँव की’
गोदी में जिसकी खेली पली बढ़ी,
उछली कूदी लिखी पढ़ी।
खेतों और खलिहानों में,
पगडंडी पर पतली खूब चढ़ी।
सोधी सुगंध बसी मन जिसकी
वो है माटी मेरे गाँव की।।
माँ से छुप-छुप खूब है खाई,
गूध-गूँध चित्रकला बनाई।
केला,आम,सेब और संतरा,
बना-बना कर धूप लगाई।
घर की दीवार बनी है जिससे,
वो है माटी मेरे गाँव की।।
बचपन में मिलजुल कंचे खेले,
कब्ड्डी पर जहाँ लगते थे मेले।
खो-खो पर होती भागमभाग,
पिट्ठू मार के वार भी झेले।
जहाँ कभी नहीं रहेअकेले,
वो है माटी मेरे गाँव की।।
जामुन आम की हर इक डाली,
कर देते थे मिलकर खाली।
छक-छकके खूब थे खाते,
चिल्लाते थे हम पर माली।
उंगली से जिस पर लिखते नाम
वो है माटी मेरे गाँव की।।
-गोदाम्बरी नेगी