माटी के पुतले और न कर मनमानी
माटी के पुतले और न कर नादानी
माटी के पुतले और न कर मनमानी
जल जंगल जमीन बचाओ, जिसमें सांस समानी
माटी के पुतले और न कर नादानी
घुट घुट कर मर रही हूं मैं, खतरे में जिंदगानी
जिंदा ना मैं बच पाई तो, न हवा न रोटी पानी
माटी के पुतले और ना कर मनमानी
माटी के पुतले और न कर नादानी
मिटा नहीं मेरे अस्तित्व को, सोच जरा ये प्राणी
जल जंगल और जमीन में, तेरी सांस समानी
माटी के पुतले और न कर नादानी
नहीं बचाया मुझे अगर, तुम भी नहीं बचोगे
क्या धरती पर मानव जीवन का अंतिम सत्र लिखोगे?
अब भी वक्त है भूल सुधारो, हरियाली तुम्हें बचानी
माटी के पुतले और न कर मनमानी
जल जंगल जमीन बचाओ, जिसमें सांस समानी
माटी के पुतले और न कर नादानी
तुम्हारी धरती मां
सुरेश कुमार चतुर्वेदी