मां
मां
रक्त सना लिपटा वह तन,
मातृ-नाल से गुंथा-बंधा-सा।
अधखुली आंख, अस्फुट क्रंदन,
जनन कष्ट से विचलित सा-मन।
किन्तु लगा शिशु को छाती से,
विस्मृत करना वह कष्ट-चुभन।
वत्सलता की अनुभूति यही,
वंचित है जिससे धरा-गगन।
इस सुख को कोई क्या जाने,
जाने ना कोई वन-उपवन।
ना ही जाने बावरा पवन,
बस मां ही समझे यह बंधन।
नौ माह गर्भ में था जीवन,
बस अनुभव होता था कंपन।
ममता से प्रेरित बुद्धि यही,
उसको पाने को व्याकुल मन।
जब अंक लगा शिशु, उसके,
थे बंद हाथ, बस पद-चालन।
आं-उवां-उवां का स्वर क्रंदन,
डूबा उसमें माता का मन।
मानो नवयुग का हुआ सृजन,
नौ निधियों से बढ़ कर यह धन।
वात्सल्य यही जो पूर्ण करे,
नारी का गोद भरा जीवन।।
@अमिताभ प्रियदर्शी