मां (संस्मरण)
मां
वैश्विक महामारी कोरोना के संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए भले ही भारत में 25 मार्च, 2020 से लॉकडाऊन की शुरुआत हुई हो, परंतु हमारे शहर रायपुर (छत्तीसगढ़ की राजधानी) में 18 मार्च, 2020 की दोपहर को पहला कोरोना पॉजिटिव केस मिलने के तत्काल बाद पूरे शहर में धारा 144 लागू कर कर्फ्यू की स्थिति निर्मित कर दी गई थी।
जैसे ही खबर लगी, लोग स्तब्ध रह गए और डरे-सहमे आनन-फानन में अपने घरों में दैनिक जरूरत के सामान ठूँसने लगे। घर और दफ्तर से लोग भागते हुए दुकान पहुँचने लगे। दुकानों के सामने भीड़ इकट्ठी हो गई। जगह-जगह पुलिस को दखल देना पड़ा।
ऑफिस से लौटते हुए मैं भी कुछ जरूरी सामान खरीदना चाहा परंतु छोटे-बड़े हर दुकान के सामने लंबी लाइनें देख हिम्मत नहीं हुई। भागते भूत की लंगोट ही सही, की तर्ज पर रास्ते में घूम-घूम कर सब्जी बेच रहे एक सब्जीवाले से लगभग दुगुनी कीमत पर पाँच-पाँच किलो आलू, प्याज, टमाटर, पत्ता गोभी और लौकी खरीद कर घर पहुँचा।
कॉलबेल बजाने पर जब दरवाजा खुला तो हॉल की हालत देखकर आँखें फटी की फटी रह गईं। पूरा हॉल आटा, चावल, दाल, चना, मैगी, चाऊमीन, पोहा, टोस्ट, सोनपापड़ी, अचार, तेल, घी, नमक, मसाला, बिस्किट, सूजी, सेवई, चिप्स, साबून, शैम्पू, हैंडवॉश आदि के दर्जनों पैकेट से भरा पड़ा है।
श्रीमती जी ने मुझे बहुत ही सावधानीपूर्वक बिना कोई भी चीज छुए सीधे बाथरूम में जाकर नहाने और सारे कपड़े वाशिंग मशीन में डालने को कहा।
जब नहा-धोकर वापस आया, तब उन्होंने बताया कि पड़ोसी मुहल्ले में एक कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद पूरे मुहल्ले को पुलिस ने सील कर दिया है। लोकल न्यूज चैनल वाले बता रहे हैं कि पूरे शहर में अब महीनों दुकानें बंद रह सकती हैं। सो, मैंने किरानेवाले को फोन पर ऑर्डर करके छह महीने का जरूरी सामान मंगवा लिया है। रेट थोड़ा ज्यादा लगाया है, पर गनीमत है कि सारी चीजें मिल गई हैं।
हकीकत ये था कि रेट थोड़ा ज्यादा नहीं, पूरा डेढ़ गुना ज्यादा था, पर अब बहस करने का कोई लाभ नहीं था; क्योंकि ऑफिस भी बंद होने वाली थी और घर के बॉस से पंगा लेने का परिणाम बताने की जरुरत नहीं।
जब देशभर में लॉकडाऊन की घोषणा हो गई, तो हम भी अपने फ्लैट में लगभग कैद हो गए। कवर्ड कैंपस वाली कॉलोनी होने से गेट में ताला लग गया। झाड़ू-पोंछा और बरतन माँजने वाली बाइयों का आना बंद हो गया।
अब दिनभर हम पति-पत्नी अपने 14 साल के बेटे और 4 साल की बेटी के साथ टी.वी. देखकर, मोबाइल चलाकर, पुस्तकें पढ़कर, अंताक्षरी, लूडो, कैरम, ताश खेलकर बिताने लगे। कुछ दिन तो बहुत अच्छा लगा पर धीरे-धीरे बोरियत महसूस होने लगी।
चूँकि घर में खाने-पीने की चीजें भरी पड़ी थीं, सो मैं यू-ट्यूब से सीखकर लगभग रोज एक नया पकवान बनाने लगा। श्रीमती जी बार-बार टोकतीं कि अपनी और बच्चों की आदत खराब मत करिए। ये स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है।
मैं ये कहकर टाल देता, “अरे यार, ज्यादा टोकाटाकी मत किया करो। ये मेरे बच्चे हैं, इन्हें भी मेरी तरह खाने-पीने का शौक है।”
एक दिन श्रीमती जी उखड़ गईं, “पता है मुझे भी कि इन्हें खाने-पीने का शौक है और ये जो आपके बच्चे हैं न, इन्हें मैंने ही पैदा किया है। मुझे भी पता है कि इनकी और इनके बाप की सेहत के लिए क्या ठीक है और क्या नहीं ? ये सब उल्टे-सीधे पकवान खा और खिलाकर आप यूँ अपना और इनका इम्यून सिस्टम खराब कर रहे हैं। आपको पता होना चाहिए कि कोरना से जल्द ही मुक्ति मिलने वाली नहीं है। सो, हमें अपनी इम्यून सिस्टम को ठीक रखना होगा। खबरदार, अब कभी रसोई में कदम रखा तो। मैं कर लूँगी सारे काम।”
मौसम की नजाकत को देखते हुए हमने धीरे से पूछा, “खाने के बाद बरतन धोने तो आ ही सकता हूँ न ?”
वे मुसकराते हुए बोलीं, “हाँ, तब आ सकते हैं। और एक चीज याद रखिए, परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण विभाग द्वारा जारी निर्देशानुसार मैं अब से रोज सुबह तुलसी, अदरक, लहसून आदि चीजों की काढ़ा बनाऊँगी। आप बिना मुँह बनाए चुपचाप पी लेना, ताकि आपकी देखादेखी बच्चे भी पी जाएँ।”
हमने स्वीकृति में हामी भर ली। काढ़े का सेवन अब हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया है।
वाकई माँ की चाहे वह हमारी हो या हमारे बच्चों की महिमा अपरंपार है।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़