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2 Nov 2018 · 1 min read

मां, लिखते लिखते खत्म रोशनाई हुई

मां तुझे सोचकर मैने जो भी लिखा ,
लिखते लिखते खत्म रोशनाई हुई।

ग़म हवाओं ने मुझको कभी जो छुआ
दर्द तुझको ही सीने में पहले हुआ
मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारे में
जा के पढ़ने लगी तब दुआ ही दुआ
मन भावों का सागर उमड़ने लगा ,
पीठ तूने ही थी थपथपाई हुई ।

बेड़ियां काटनी थीं मां संत्रास की
थी परीक्षा कठिन तेरे विश्वास की
डगमगाने लगी देख शूलों को मैं
थाम उंगली लिया तेरे एहसास की
गर्व करता है मुझपर जमाना भले,
सीख तेरी ही हैं सब सिखाई हुई ।

आज मंजिल मिली खूब शोहरत मिली
यूं खुशियों से मेरी है दुनिया खिली
ब्याह कर दूर तुझसे है जाना पड़े
सुन बड़ी न मैं होती थी छोटी भली
मां बरबस ही मुझको सताएगी वो,
बचपने में थी लोरी सुनाई हुई ।

कल्पना मिश्रा
सीतापुर

78 Likes · 181 Comments · 6992 Views
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