मांँ
हमारे हर दर्द को वो, लाख छुपाने पर भी
आँखों से पहचानती है ।
वो माँ ही तो है, जो दुनिया से हमें
नौ महिने ज्यादा जानती है ।।
खुद खाने से पहले,
सदा वो हमें भोजन कराती है ।
हमारी हर जरुरतों को,
वो हमसे पहले जान लेती है ।।
वो कोर माँ के हाथों का,
वो स्वर्ग माँ के चरणों का ।
बनकर रह जाएगी एक दिन,
हिस्सा हमारे स्मरणों का ।।
वह दिव्यानंद जो,
माँ के गोद में आता है ।
संसार में दूजा,
कही और ना मिल पाता है ।।
वेद-पुराण का सार है माँ,
सृष्टि का आधार है माँ ।
ईश्वर के भिन्न रूपों का,
धरती पर अवतार है माँ ।।
धरा पर अपना पहला कदम रखना,
हमने माँ से ही तो सीखा है।
मैं ज्यादा क्या लिखूं माँ के संदर्भ में ,
हमारी नींव भी तो खुद माँ ने ही रखा है ।।
-दिवाकर महतो
बुण्डू, राँची, झारखण्ड