मांँ
कितना मधुर कितना प्रेम स्वरूप व सच्चा शब्द है मांँ
हर हाल में निष्पक्ष , निर्विकल्प व न्योछावर रहती है मांँ
उतारेगा क्या कोई इसका कर्ज
जो करती है हर काम समझ कर फर्ज़
कोख पालन से लेकर जीवन पर्यन्त
जिसके प्यार का नहीं है कोई अंत
देती है हर पल बच्चों का साथ
बदले में नहीं रखती कोई भी आस
जब नहीं होती तो दुनिया लगती है विरान
बगैर इसके पूरी कायनात भी है सुनसान
नमन करो,प्यार करो और दो सम्मान
इसके आँचल को ही मानो तुम अपना भगवान
न जाने कब ,कैसे ,क्यों आदि प्रश्नों को छोड़ जाती है माँ
अपने अंदर सब गमों को समेटकर
ऊपर से मुस्कुराती है माँ
ऐसी ही होती है सबकी माँ….
सुनीता सिंह