माँ
देख रही अपना अप्रसांगिक होना माँ,
हां वो देखती है अपना अलग
थलग पड़ना,
उठती है उंगली उसके ज्ञान पर
भी होता है एहसास
उसे अपने कमतर होने का ओर
वो हो जाती है चुप,
दूर कर लेती है घर के हर छोटे
बड़े फैसले से,
कभी हर फैसले में शामिल होती
थी उसकी मर्जी,
आज अनभिज्ञ रहना चाहती है
नहीं देना चाहती कोई राय,
बस देखती है मूक आंखों से खुद
अपने बनाये,
संसार को बदलते हुए जिसमे
उसकी वो जगह नहीं,
अब बच्चे वो माँ चाहते जो उनके
मुताबिक सोचे,
ओर वो बदल देती है खुद को
बिल्कुल बच्चों की खातिर,
एक अहसास रह जाता मन में
उसने तो समझी बच्चों की सारी
अनकही बातें
फिर बच्चे के लिए माँ उतनी अब
खास नहीं रही,
जितने अहम उसके लिए उसके
बच्चे हैं आज भी।
वो तो जीती थी सिर्फ बच्चों के
लिए ही सब सुख छोड़ कर,
ओर आज भी जीती है हर दर्द
को अंदर समा कर,
चेहरे पर मुस्कान की चादर ओढ़
कर,
ख्वाहिशें कहीं रखीं हैं कोनों में
सिसकती सी,
जो सोचा था बड़े होंगे बच्चे तो
होंगी पूरी,
पर मां तो माँ है झांकती नहीं उन
ख्वाहिशों की ओर,
ओर रहती है बस चुपचाप
अपना माँ होने का चुकाती है
कर्ज़ शायद,
माँ होना आसान तो नहीं आखिर,
रब बन जाना पड़ता है और
देने पड़ते हैं वरदान बिन मांगे
समझ लेनी पड़ती हैं मर्जियाँ
बच्चों की,
खामोश आँखे, खामोश लब
रूह तक खामोश हो जाती है,
फिर भी जीती है बच्चों की खुशी
और शांति की खातिर
बस चुपचाप बिना किसी उम्मीद
के एक ऐसी दुनियां में जो उसने
कभी नहीं चाही थी।
सीमा शर्मा