“माँ”
चक्की के दो पाट से रिश्ते
धान सी पिसती बीच में “माँ”
रिश्तों के बीच-बचाव में आ कर
चप्पल जैसी घिसती “माँ” ☹️
रिश्ते नाते घर परिवार
अच्छा बुरा सब स्वीकार
दर्द को खुद की दवा बना के
घाव के जैसे रिसती “माँ” ☹️
तुम माँ हो फिर भी समझाया नहीं
सब कुछ जानो पर सिखाया नहीं
इस सीख सबक के छोर से बंध कर
रबर जैसे खिंचती माँ 😥
तुझे वो प्यारा बस मैं नहीं
हूँ मैं गलत, सिर्फ वो सही
“तेरा-मेरा” कर सब हाथ छटक दें
फिर मुठ्ठी जैसे भिंचती माँ ☹️
“इंदु रिंकी वर्मा”©