माँ
दूर जाते हुए
मुड़ कर देखा था तुझे
और पाया मुस्कुराते हुए
वही फीकी सी मुस्कान
जिसे पहचानती हूँ
उन दिनों से
जब तुम कह देती थी
सब ठीक है
मुझे बच्ची समझ के
मैं भी मुस्कुरा देती तुम्हारा भरम रखते
की सब ठीक है
पर देखा था तुम्हे
पल पल रिसते
बून्द बून्द टपकते
सिली सिली लकड़ियों की तरह सुलगते
पनियाली आंखों को
चूल्हे के धुएं का बहाना बना कर
खुरदरे हाथों से रगड़
उन्हें छुपाते
की सब ठीक है
और आज बरसों बाद भी
ये मुस्कान ज्यूँ की तयूं
पर चेहरे की झुर्रियां,
आंखों की थकन इतनी
कि मुस्कान भी अब साथ नहीं दे पाती
उन बरसों पुराने
जाने पहचाने शब्दों का
जो मेरे और तुम्हारे बीच
की बिन कहे समझ जाने वाली
बातों का भरम खोने पर तुले थे
मुश्किल था इस बार
रोक पाना खुद को
दिल चाहता था आज कह दूँ
माँ !
कब तक ढोती रहेगी अपने माँ होने को,
एक पत्नी या बहन होने को
आज रो ले
चीख चीख कर
सब कह दे
तोड़ दे बांध आंसुओं के
मैं सब सुनूँगी
तुझे सीने से लगा
तसल्ली दूंगी
मैं हूँ तेरे साथ
तेरे दुःख में, आंसुओं में
पर इतनी ताब नहीं कि
कह सकूँ मन की बात
कि बरसों के तेरे भरम का
भरम भी तो रखना था
की सब ठीक है माँ
हाँ सब ठीक है।