माँ
रुखी सी रोटियों पर घी की धार सी माँ,
रुखे से मन पर लगा देती थी,अपनी बातों का स्नेहन।
और दमक उठता था मन और तन।
मुश्किलें, परीक्षाएँ चलती रहती है,
जब सब्र की जेब रीतने सी लगती है।
उसकी सीख समझाईश अक्सर
भरपाई कर जाती है।
जीवन के सफर में आते है जब
मुश्किलों की आँच पर,उन
पकते हुए लम्हों पर दुआ बन बरसती माँ,
हमारी कोशिशों में संबल भर जाती है।
कभी पढ़ा था विज्ञान की किताब में
होता है उत्परिवर्तन,
माँ भी तो करती है,
विचारों का उत्परिवर्तन।
औलाद की खातिर बदल देती है सब कायदे।
जैसे लगा रही हो दिठौना कि,
जीवन के सफर पर नजर ना लगे हमें।
यादों की ईख को जब भी पेरने बैठा मन,
छलक छलक कर मधुरता मन में
भर जाती है माँ।
कविता नागर
देवास(म.प्र.)