माँ
माँ
‘माँ!’ शीर्षक है या सुई? या
नरम मुलायम मरहम की रुई
मैंने सिर पटका, माँ को हुआ खटका
मैंने नोचा-खरोंचा और वह मुस्काई
मैंने नही खाया, वह गुस्साई।
मै जब भी जगा तो यही लगा
वह सोई नही
मुझे ठेस न लगे, यह सोचकर
वह रोई नही।
वह कहती थी ‘मुझे सुख देना,
बस अपने आप को, कभी चोट न देना।”
जब खुश था, तो पूरा जग था
उदास था तो, वही मेरे पास थी
मैंने समझा कि वह सिर्फ मेरे पास थी
पर सबने कहा, ”उनकी माँ भी खास थी।”
जीवन में सांस थी।
प्राणों की खास थी
कहने को ‘माँ’ थी।
पर आत्मा थी।
राम करन, बस्ती, उत्तर प्रदेश
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