माँ
कर्ण को जो शांति दे,
वीणा का वो मधुर क्रंदन हो तुम।
मेरे ह्दय बाग कि,
महकती कुमुदिनी हो तुम।
कुण्ठित अस्तगामी इंसान को,
जो बचा सके वो पतवार हो तुम।
मधु के सरस स्वभाव सी,
एक मीठी अनुभूति हो तुम।
कलेवर की तपिस को जो हर सके,
नीर की वो शीतल बौछार हो तुम।
वृहद अनुराग प्रेम की,
अनुपम निशानी हो तुम।
क्षुब्धा पिपासा जो मिटा सके,
उस तेज का प्रतिरूप हो तुम।
सबको धारण कर सके,
वो विशाल धरा हो तुम।
कतिपय अतिशय नहीं होगा,
मेरे बीमार अस्तित्व की,
औषधि हो तुम।
अब और क्या मैं तुमसे कहूं?
थकित व्यथित मानव को जागृत
करने वाली “माँ” हो तुम!
-अजीत मालवीया “ललित”
गाडरवारा,नरसिंहपुर
(मध्यप्रदेश)