“”माँ””
माँ ! तुम मेरी बरगद की छाया।
तुमसे ही बनी है मेरी काया ।
जब तक थी , तेरे आगोश में ।
सुरक्षा का था पूरा एहसास ।
बादल की तरह निर्भीक थी मैं ।
पक्षियों जैसे पंख थे पास ।
नदी की तरह स्वतंत्र थी मैं ।
बहती रहती थी ,मैं बिंदास ।
तेरी गोद से दूर क्या हुई ।
भूल गई अपनी अल्हड़ता ।
शांत , स्थिर हो गया मेरा मन ।
गुम हो गई मेरी चंचलता ।
डूबती उतराती हूँ जीवन प्रलय में ।
सबने किया मुझ पर आघात ।
गिर -गिर कर फिर सम्हलती हूँ ।
कब थमेगा माँ ! ये चक्रवात ।
आ जाओ ! छुपा लो आँचल में ।
उड़ा ले जा रहा मुझे ये झंझावात ।
डॉ .प्रियंका त्रिपाठी
बिलासपुर (C.G.)