माँ
उस के कृत्य बताना बहुत कठिन सा लगता है,
पैरों का स्थान भी हमको हरिद्वार सा लगता है।
दर्द भरे उसके उन पलों को कैसे बतलाऊं,
नौ माह रखा है गर्भ मे तुमको कैसे समझाऊं।
अम्बर और पर्वत भी उसके समक्ष झूक जाता है,
धीमी पड़ जाती हैं पवने और तूफा भी रुक जाता है।
जब अपने पैर अपने ना हुए तुमने चलना सिखलाया,
पानी को मम मम कहना ही तुमने हमको बतलाया।
मात पिता का ज्ञान ना था सब अंजान से लगते थे,
घर आँगन मे खुशियों के कुछ अरमान से दिखते थे।
गिर के उठना और संभलना तुमसे ही तो सीखा है,
सम्मान बड़ो का करना वो भी तुमसे ही सीखा हैं।
ममता की मूर्त है माँ यह सब को बतलाया जाता है,
फिर भी उस मूर्त को वृद्धाश्रम छुड़वाया जाता है।
माँ तड़प तड़प कर अहर्निश आँखों से अश्क बहाती है,
फिर भी हमको परदेश मे माँ की याद नहीं रुलाती है।।
धीरेन्द्र सिंह
बरेली(उत्तर प्रदेश)