माँ, मेरी माँ . . . !
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* * * माँ, मेरी माँ ! * * *
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अवाक् देखता मैं तेरे हाथ को
विमान की तरह से नीचे को आ रहा
दिल के दालान में खलबली मची हुई
नयनदीपों का जोड़ा जगमगा रहा
अवाक् देखता मैं तेरे हाथ को . . . . .
इक घुटने पर सिर दूजे पाँव झूलते
आनन्द गर्म गोद का ठंडी में आ रहा
दुग्धपान लालसा भ्रमर-सी गूँजती
पीयूष-युगल तेरा आँचल हिला रहा
अवाक् देखता मैं तेरे हाथ को . . . . .
प्रेम से सना हुआ भीगा दुलार से
कौर मीठा-मीठा मुख मेरे समा रहा
वैकुंठधाम धरा का वो भूलता नहीं
मनमहंत आज भी उत्सव मना रहा
अवाक् देखता मैं तेरे हाथ को . . . . .
दृष्टिडोर अटकी चलभाषी में आज माँ
समय का सितार धुन नई बजा रहा
नवकुसुम खिलते-हँसते नित नई भोर में
कैसा उगा दिवस नया काँटे सजा रहा
अवाक् देखता मैं तेरे हाथ को . . . . .
हाथ आँख व्यस्त सब ज्ञान बांचते
यंत्र मनुज मनुज यंत्र में बदल रहा
स्पर्शसुख स्वप्न हुआ आधी रात का
सोने को रोने को बचपन मचल रहा
अवाक् देखता मैं तेरे हाथ को . . . . .
चिरैया हुई लोप अब हम चिंचिया रहे
पुष्पगुच्छ कागद कागद की तितलियाँ
नहीं लौटेंगे वो दिन दिल मानता नहीं
बस तू न बदलना माँ, मेरी माँ . . . !
अवाक् देखता मैं तेरे हाथ को . . . . . !
वेदप्रकाश लाम्बा ९४६६०-१७३१२