माँ
यू ही नहीं एक माँ,माँ बन जाती है।
रखती नौ मास गर्भ में सहेज के भूर्ण को
वहाँ अपने रक्त से सींच कर उसे शिशु बनाती
सहती प्रसव पीड़ा भयंकर,
तब जन्म नव शिशु को दे पाती ।
रातों की नींद देकर उस को चैन से सुलाती।
छोड़ के मोह अपनी काया का अपने स्तनों से दूध पिलाती।
रोता अगर नींद में डर कर जब बालक।
जाग के उसे लोरी सुनाती।
भूल कर अपने नक्से और नाज,
बालक के मल मूत्र को साफ करती।
भूल जाती अपना सजना और सँवरना,
पर बालक को स्वच्छ वस्त्रों से महकाती।
जब दूर कहि भूख से रोता बालक,
स्तनों से माँ के बहती दूध की धार।
रह जाती खुद भूखी और प्यासी
मगर निज लाल को खाना खिलाती ।
ऊँगली पकड़कर धीरे-धीरे चलना सिखाती।
सुना कर कहानी राम और कृष्ण की,
बालक को वो सदाचार सिखाती।
जब भी रोता या उदास होता बच्चा,
गुनगुना कर मीठे भजन सुनाती।
सिखाती की खूबसूरत है दुनियाँ
स्वर्ग सी,रख के होठों पर मुस्कान,
दुनियाँ की कटुता छुपाती।
जब चोट कही लग जाती।
माँ के दिल तक आह पहुँच जाती।
लड़ लेती दुनियाँ से काली और दुर्गा बन कर,
जब कभी बच्चे पर विपदा आती।
सिखाती उस को कैसे करे मल मूत्र का त्याग।
कैसे संयम रखें अपनी इंद्रियों पर,
कैसे बनाये खुद को मजबूत।
कैसे रखे सुरक्षित खतरों से।
कैसे आगे बड़े डर से छोड़कर जब
बच्चे को स्कूल वह आती है
कहां चैन से सो पाती है ।
बनती कठोर वह बालक के आगे ,
जब वह कोई गलती करता है ।
उसको मार के ,अपने अश्क को छुपाती।
करती पूजा नित्य वो पर अपने लिए नही,
परिवार के लिए दुआएँ मांगती।
नन्हे-नन्हें हाथों में कलम थमाना और उसे पढ़ाना सिखाती अपने हाथों से खाना बनाकर ,
दुनियाँ की मिठास उसमें मिलाती।
ऐसे वह निजी लाल को खाना खिलाती ।
यूं ही नहीं कोई माँ ,माँ बन जाती
सहती भूख और प्यास तब खाना बनाती।
यूं ही नहीं कोई माँ,माँ बन जाती।
संध्या चतुर्वेदी
मथुरा यूपी