‘माँ’ तू चली गई !
कुछ डूबी-सी,उतराई-सी
सुख-दुख में ‘माँ’ अंगड़ाई-सी।
मैं ‘चातक’ पंक्षी-सा प्यासा
‘माँ’ वर्षा है मंडराई-सी।
तब भूख लगी अब रोता हूँ
जागा-जागा तन,सोता हूँ।
वर्तमान में जीवित हूँ
पर भूत के सपने बोता हूँ।
स्मरण मुझे है तू प्रतिपल
माथा मेरा सहलाती थी।
सो जा प्यारे ! ओ लाल मेरे !
मिसरी-सा गीत सुनाती थी।
जरा अवस्था लील गई
हौले से मेरी बगिया से।
एकांत अकेला छोड़ गई
रहना खुश पगले दुनिया में।
अब मूक बनी हँसते-हँसते
उस चार टाँग की शैय्या पर।
मैं रोते-रोते ढोता हूँ
तू कहती, मैं इठलाई-सी।
नाम – ध्रुव सिंह ‘एकलव्य’
वाराणसी, उत्तर प्रदेश ( भारत )