माँ ! तुम ही तो थी…
शून्य से आती हुई, विधु तक जाती हुई,
ज़िन्दगी की व्यथा भरी, इस दुनिया की संकरी,
पाषाण पूर्ण राहों में, जिसने सही रस्ता दिखाया,
तुम ही तो थी जिसने मुझे, उंगली पकड़ चलना सिखाया ।
सत्य अहिंसा पर चलने को, सहायता निर्बल की करने को,
कानन में निडर केसरी, और प्यासों का सागर बनने को,
राष्ट्र हित में मर मिटने को, इस जग में जो मुझको लाया,
तुम ही तो थी जिसने मुझे, जन सेवा का पाठ पढाया ।
तुमने ही अपने इस तनय के, नयनों में निद्रा लाने के लिए,
स्नेह से सिर पर हाथ फेर, मीठी नींद सुलाने के लिए,
प्यार से लोरी सुनाकर, हर रात को सुखमय बनाया,
तुम ही तो थी जिसने मुझे, चन्दा मामा का गीत सुनाया ।
मुझको इतना सब कुछ देकर, प्यारी माँ अब अगर,
तुम मुझको छोड़ चली जाओगी, क्या दूर मुझसे रह पाओगी,
मैं तुमको याद नहीं आऊँगा, और तुम सपनो में ना आओगी,
लेकिन तुम चली गयी अकेली, मुझे एक बार भी नहीं बुलाया,
तुम ही तो थी जिसने मुझे था, गोद में ले कर झुलाया,
हँसना सिखाया तुमने मुझे, फिर आज क्यों इतना रुलाया,
तुम ही तो थी जिसने मुझे, उंगली पकड़ चलना सिखाया ॥
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– राज कवि आज़ाद, Haridwar