माँ तुम क्या हो
माँ तुम क्या हो
छोटी छोटी बातों को
इतना लम्बा कर देती हो
और बड़ी बड़ी बात को
यू ही सहज कह देती हो
माँ तुम क्या हो
खोए लम्हे चुन लेती हो
सपनों के आगे मिल लेती हो
विचारों के नन्हें डोर को
हौले हौले फिर तुम बुन लेती हो
माँ तुम क्या हो
मेरे बच्चों में ही मुझे ढूँढ लेती हो
उनमें ही मेरे क़िस्से ग़ुन लेती हो
मैं सोता हूँ ,ये सुनकर सो लेती हो
नज़रों को बिन बताए कैसे पढ़ लेती हो
माँ तुम क्या हो
मेरी ग़लती को सबसे ढक देती हो
चुपके से फिर आकर कह देती हो
मन में मेरे,फिर सच को भर देती हो
सीधी राहों पर चलने की सह देती हो
माँ तुम क्या हो
हर बात में मेरी फ़िक्र कर लेती हो
हर ज़िक्र में मेरी ज़िक्र कर लेती हो
रोज़ मेरी सलामती का हम्द पढ़ लेती हो
दुआ देते तुम ता उम्र नहीं थकती हो
माँ तुम क्या हो
तेरे चेहरे पे झुर्रियाँ है अब बहुत
जादू हाथों में पर अब भी है वही
एक बार जो हाथ तू फेर देती है
दर्द सर से काफ़ूर हो लेती है
तेरे हर लम्स में एहसास वही
लाख झुर्रियाँ है पर बात वही
मेरी आदत है की मैं कुछ कहता नहीं
अपनी बेटी में तुझको तकता हूँ
जब भी ठोकर लग जाती है मुझको
उसके चेहरे से तुझको छू लेता हूँ
वो भी तेरी तरह ही मुझको छूती है
दर्द फिर वैसे ही काफ़ूर होती है
जैसे तुमने ही मेरे सर को छुआ
जैसे तुमने ही मेरे पलकों को छुआ
वो पूरी नक़ल बन गयी है तेरी
तुझ जैसी ही आदत बन गयी है मेरी
माँ तुम क्या हो ………
यतीश