माँ की याद
खाना बनाते ही माँ की याद आ गयी,
ना जाने वो स्वाद कहाँ से लाती हैं,
सब्ज़ी,राशन अब ख़ुद ही लाना पड़ रहा,
ना जाने माँ पूरा घर कैसे चलाती हैं,
अब तो बस अकेले ही खाना पड़ता है,
माँ तो साथ बिठाकर सबको खिलाती है,
पढ़ाई के वास्ते सबसे मुँह मोड आये हम,
पर ये किताबें भी मुझे माँ का ही अक्स दिखाती हैं,
बड़ा मुश्किल लगता हैं सब अकेले संभालना,
पर हर बार माँ मेरी हिम्मत बढ़ाती है,
जब कभी उदास सा दिल हो जाता हैं मेरा,
सपनो के लिए बलिदान क्या है माँ अच्छे से समझाती है,
कभी लगता हैं सब छोड़कर माँ के पास चली जाऊँ,
फ़िर माँ की सिखाई हर बात याद आ जाती हैं,
बोझ सी लगने लगती हैं ये जिंदगी,
ना जाने माँ हम सब क बोझ कैसे उठाती है,
फ़िर आँख बन्द कर ख़ुद को समझाने की कोशिश करती हुँ,
वहाँ भी माँ हौसला बढ़ाती नज़र आती हैं ।
✍️वैष्णवी गुप्ता (Vaishu)
कौशाम्बी