माँ की माँ
थाम लेती हूँ दोनों हाथों से,
जब चलती है वह,
लड़खड़ाती अबोध शिशु- सी।
सहला देती हूँ,
पानी की नरमाई से,
जैसे बचपन में उसने नहलाया था कभी।
पढ़ लेती हूँ,
एकटक ताकती नज़रों की भाषा,
बिन कहे ,
बिल्कुल उसकी तरह।
रो पड़ती हूँ ,
उसके जाने पर,
बिन बच्चे की माँ की तरह।
बदल गया है समय,
बदल ली है पात्रों ने भूमिकाएँ।
उसके हँसने पर हँसती,
रोने पर रोती,
इन दिनों,
मैं,
माँ की,
माँ बन गयी हूँ।
डॉ अर्चना शर्मा
शामली(उत्तर प्रदेश)