माँ का दर्द
“माँ का दर्द”
—————
फूट-फूट कर रोई थी माँ,न जागी थी न सोई थी माँ।
घोर तिमिर में खोई थी माँ,जिस दिन तन्हा होई थी माँ।।
अपने मुँह मोड़ गए थे जब,मँझधार में छोड़ गए थे सब।
रिश्ते-नाते मलिन हुए तब,किस्सा बना जीवन में अज़ब।।
सुहाग हादसे में चल बसा,बेटा भी घर से निकल बसा।
जीवन छलकर अरे!यूँ हँसा,अपनो ने ही ज्यों तंज कसा।।
घर लगता था सूना-सूना,शमशान का हो ज्यों नमूना।
एक अकेली तट पर पत्थर,झेलतीे लहरों का छूना।।
लोग दिलासा देकर जाते,दो अश्क़ झोली में बहाते।
जीवन हुआ दुर्लभ निरूत्तर,संघर्ष हस्ताक्षर बुलाते।।
न सोची किसी ने उस मन की,खुद जानती वेदना तन की।
बहरों बीच कथा जीवन की,पीठ पीछे हँसी जन-जन की।।
यहाँ संघर्ष में जीना था,हरपल ज़हर भाँति पीना था।
हृदय-पीर को उस अबला ने,आशा-मरहम से सीना था।।
श्रम धैर्य की पोथी बाँधकर,चली पथ में सीना तानकर।
मन ने कहा यूँ सुर साधकर,यहाँ खुद की मदद खुद ही कर।।
सब मतलब का चलता है,पुरुषार्थ फूलता-फलता है।
दो हाथ दिए हैं मालिक ने,मनुज खुद मुकद्दर लिखता है।।
यह विश्वास संजोए चली,माँ अब तो ख़ूब फूली-फली।
पर ममता के आँसू बरसे,माँ शब्द ना सुना किसी गली।।
राधेयश्याम बंगालिया “प्रीतम”
वी.पी.ओ.जमालपुर,तहसील बवानी खेड़ा,ज़िला भिवानी, राज्य हरियाणा
————————————