महाभारत के वरिष्ठ जन
महाभारत युद्ध कौरवों के अधर्म से शुरू हुआ,
और उनकी मौत पर ही खत्म होना था सो हुआ ।
धर्म व् सत्य की जीत हुईं,पांडवों को हक मिला ,
और एक सभ्य और सुन्दर राज्य स्थापन हुआ।
मगर जब भरत वंशीय बुजुर्गों का ख्याल आया,
तो दिल हमारा रोया और दुखी भी बहुत हुआ ।
एक ने बलिदान दिया फर्ज और वफादारी के कारण,
और एक का कश्मकश में सारा जीवन तमाम हुआ।
अपनी प्रतिज्ञा और वचन बाध्यता से भीष्म बंधे थे,
तो कौरवों के प्रति वफादारी ने द्रोण को विवश किया ।
गांधारी दो पाटों में पिस के रह गई करती भी क्या ?,
इधर पति व् संतान का हित,उधर धर्म खड़ा हुआ।
इतना आसान नहीं होता है अपना ही खून बहाना,
हा दुर्भाग्य हा ! इस निर्मम दृश्य से सामना हुआ ।
धृतराष्ट्र के प्रति नही मुझमें कोई संवेदना ,सच कहूं!
क्योंकि उसी की छत्र छाया में स्वार्थ पोषित हुआ।
उसी की कुंठित लालसाओं/ महत्वाकांक्षाओं द्वारा
कौरवों के मन में पांडवों के प्रति वैमनस्य पैदा हुआ ।
माता कुंती के प्रति सम्मान और श्रद्धा है मेरे मन में,
उसी की शिक्षा/संस्कार से ही पांडव कुल सशक्त हुआ
महारानी गांधारी को कुंती से शिक्षा लेनी चाहिए थी ,
संतान मोह से बढ़कर जिसने कर्तव्य को महत्व दिया ।
अपनी संतानों को जिसने धर्म परायण मनुष्य बनाया ,
अपने अधिकारों और अन्याय हेतु लड़ना सिखाया।
भरत वंश के महान आत्माओं / वीरांगनाओं को नमन ,
जिनके महान आदर्शों से महाभारत का संदेश अमर हुआ।