महानता
सुनो
किसे पुकारती हो तुम
इस बियाबान में
ये जंगल इंसानों का है
हर एक सुनाना चाहता है बस
अपनी ही
और इस शोर में
क्या तुम कह सकोगी
जो कहना चाहती हो
मन की चीखें
इस तरह उबल कर
बह रहीं हैं तुमसे कि
तुम छुप जाओ किसी कोने में
और तब तक रोती रहो
उन अंधेरों में बैठ कर
जब तक तुम्हारी आत्मा के
दो टुकड़ें न हो जाएं
एक तुम्हारा वो हिस्सा
जिसे ज़रूरत है
दूसरा वो जो इस ज़रूरत को पूरी कर सके
की तुम तन्हा नहीं
खुद के साथ हो
इस चीखते चिल्लाते बियाबान में
जहां कोई किसी की नही सुनता
ऐसे में
रूह के अंधेरों को
रौशन करने का जिम्मा
खुद के सुपुर्द कर
यूं करो खुद से मुहब्बत कि
खुद से मिल खुद में ही गूम
तुम्हे महसूस न हो कि
ये जंगल
तुम्हे अनदेखा, अनसुना कर
तुमसे साबित तो नही कर रहा
खुद की महानता।