चाहत
बड़े खूबसूरत से नगमे इश्क़ के, गुलज़ारो में सुनता हूँ!
मोहब्बत के बिखरते रंग हरेक, इश्तहारों में सुनता हूँ!!
वही सुन प्यार करने की खता, हम कुछ ऐसे कर बैठे!
कि अपना नाम भी मैं अब तो, गुनहगारों में सुनता हूँ!!
तेरी खुशहाली की भनक अब, लगने देती नही हवाएं!
हाँ तेरे शहर की हलचल सदा, अखबारों में सुनता हूँ!!
वो तेरी बातें अब भी अक्सर मुझे, याद आती रहती है!
तेरे शब्दो को तेरी भाषा के जो, समाचारों में सुनता हूँ!!
कभी दिल चाहता है खत्म कर दूं, यह शोर धड़कन की!
मगर अफसोस तेरे किस्से इन्ही, गलियारों में सुनता हूँ!!
कभी तू खुद ही कह देगी कि, तोड़ दो हर दी हुई कसमें!
इसी चाहत में लगा कान, पथरीली दीवारों में सुनता हूँ!!
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०४/०३/२०१८ )