महफ़िल
आज का हासिल- महफ़िल
रोज सजती है महफ़िल वर्णों की “काव्य सरिता”में
कभी स्वर डूबते मिल व्यंजनों संग कव्य सरिता में तो कभी संग एक दूसरे के अक्षर तैर जाते हैं।
कभी इज़हार बनकर इश्क की पतवार चलाते हैं।
कभी गोताखोर बन अशआर खूब डुबकी लगाते हैं
यूंही बहती रहती काव्य सरिता अविराम और अविरल
कभी बढ़ाते ज्ञान महफ़िल में तो कभी हंसते हंसाते हैं
हैं इस महफ़िल में जुड़ते जो अनजानों से रिश्ते
इसी तरह रोज सब मिल आभासी महफ़िल सजाते हैं।
नीलम शर्मा