मलाल
हर शाम सिन्हाजी इस समय नदी के किनारे आकर बैठ जाते थे. डूबते हुए सूरज को देखते हुए आत्म मंथन करते थे. अपने बीते हुए जीवन का विश्लेषण करते थे.
अपने जीवन से वह संतुष्ट थे. सारी इच्छाएं तो कभी भी पूरी नही होती पर जीवन ने उन्हें निराश नही किया था. हाँ संघर्ष सदैव ही उनके साथ रहा. अभी माँ की गोद को सही प्रकार से पहचान भी नही पाए थे कि वह उन्हें छोड़ कर चली गईं. किशोरावस्था में कदम रखा ही था कि पिता का साया भी सर से उठ गया. चाचा के घर शरण मिली पर प्यार नही. हाथ पैर मार कर अपने पैरों पर खड़े हुए. मेहनत से वह सब हांसिल किया जो जीवन जीने के लिए आवश्यक था.
पारिवारिक जीवन में भी कोई शिकायत नही रही. जीवन संगिनी ने हर मुसीबत में डट कर साथ निभाया. बच्चे भी अपने कैरियर में व्यवस्थित हो गए. सब कुछ ठीक रहा. बस इन सबके बीच अपने बारे में सोंचने की फुर्सत नही मिली.
अवकाशग्रहण के बाद अब फुर्सत की कमी नही थीं. सारी ज़िम्मेदारियां पूरी हो गई थीं. अब अपनी बरसों की अधूरी इच्छा को पूरा करने के लिए उनके पास समय था. अपने जीवन में संजोए हुए अनुभवों को वह पुस्तक की शक्ल देने की कोशिश कर रहे थे. इसीलिए रोज़ शाम नदी किनारे बैठ कर अपने अनुभवों को एक लड़ी में पिरोते थे.
सिन्हाजी अपने विचारों में खोए थे तभी उन्होंने देखा कि मंदिर के कुछ लोग बोरी में भरे हुए सूखे फूल नदी में प्रवाहित कर रहे थे. वह सोंचने लगे कभी यह फूल किसी बागीचे की शोभा बढ़ा रहे थे. वहाँ से तोड़ कर उन्हें देवता के चरणों में अर्पित किया गया. आज उन्हें जल में प्रवाहित किया जा रहा था. इन फूलों ने जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर लिया था.
‘क्या मैंने भी जीवन को संपूर्ण रूप से जिया है.’ यह सवाल उनके मन में उठा. वह सोंचने लगे अपनी सभी ज़िम्मेदारियों को उन्होंने पूरी ईमानदारी से निभाया. जो मिला उसका खुशी से उपभोग किया. अब अपने सपने को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने महसूस किया कि उन्हें जीवन से कोई मलाल नही था.