मर मर कर जीना पड़ता है !
धड़कन में तेज़ाब घुला है सांसों में अंगारे
मर मर कर जीना पड़ता है क्यूं हमको मितवा रे
सपनों के सैलाब उठे जो आंखों में डूबे हैं
नींद नहीं पलकों पे अपने दर्दों के सूबे हैं
फुर्सत कहां तुझे सोने की जाग जाग मनवा रे
मर मर कर जीना पड़ता है…..!
घुटन,ज़हर,कड़वाहट कितनी है कैसे समझाएं
अपना सीना चीर फाड़ कर किस किस को दिखलाएं
अंधे बहरों की दुनिया में अपना कौन खुदा रे
मर मर कर जीना पड़ता है…..!
अपनी लाश उठाए फिरते हैं अपने कंधों पर
तरस नहीं खाता है कोई हम जैसे बंदों पर
पीने को आंसू हैं बस,खाने के लिए हवा रे!
मर मर कर जीना पड़ता है…..!
अपनों के सपनों की खातिर जीना है मजबूरी
बदबू के इन पातालों से कैसे रक्खें दूरी
दाव पे रक्खा हमने ख़ुद को जीवन एक जुआ रे
मर मर कर जीना पड़ता है…..!