मरने से पहले
भरपूर जीवन जीकर मरा था आलोचक
मगर मरने से दशकों पहले
कहिये जब वह युवा ही था
और निखालिस कवि ही
‘मरने के बाद’ शीर्षक से कविता लिख डाली थी एक
जिसमें जीवन के सुखों के छूटने की सघन तड़प थी।
जिस हिन्दू संस्कृति में संसार एक माया है
और मोह माया त्यागने की पैरवी भी
जिस हिन्दू संस्कृति के राग से खिंचकर
आलोचक प्रकट वाम से यूटर्न कर
बन गया था घोषित बेवाम
छद्म हिंदुत्व में समा
आ गया था अपने स्वभाव पर
उस आलोचक ने पता नहीं क्यों
धर्मग्रन्थों में विहित असार संसार से राग दिखा
मृत्यु से भय का चित्र खींच दिया था
अपनी युवा काल की कविता में ही
युवा कविता में ही
आलोचक तबतक वामपंथी भी न बना था गोया
आलोचक तो नहीं ही
तब कवि बनता आलोचक
सुखी सवर्ण मात्र था
कॉलेज में पढ़ता हुआ
नवोढ़ा पत्नी से प्यार पाता हुआ
आलोचक ने अपनी मरणधर्मी कविता में
जीवन से केवल सुख के शेड्स लिए थे
शेड्स में प्रकृति के इनपुट्स थे
जैसे, आलोचक पूर्व के इस कवि को
चांद पसंद था बेहद
इधर जीवन में उसके चांदी ही चांदी थी
कवि को तालाब पसंद था समंदर पसंद था
इधर द्विज जीवन में भी तो
तालाब से मनों पार समंदर भर
सुखद आलोड़न था समाया उसके
मरने के भय में
जीने को याद कर गया था आलोचक
अपनी कविता में धूप के खिलने को
अपने रजाई में दुबकने के आलस्य से याद कर के
आलोचक के कवि को
उस साधारण जन की याद नहीं आती अलबत्ता
जिसका जीवन ही दुपहर है
दुपहर की सतत धूप का रूपक है
धूप जो तपती हुई चमड़ी को जलाती है
ग्रीष्म की चांदनी कवि-शरीर पर ठंडक उड़ेल देती है
मग़र उस श्रमण काया का क्या
जिसकी मेहनत को न ही कोई यश नसीब न ही मरहम
बरसात की हरियाली का बेपूछ फैलाव
भले ही हो ले कवि को प्यारा
लेकिन बरसात से उपजी बाढ़, बर्बादी और उजाड़ की चिंता
नहीं है उसके मरने के गणित में
जो मरने के पहले ही मार देती है प्रभावितों को
कि धूल भरी सड़क की मरने के वक़्त की याद में होना
बराबर नहीं हो सकता कतई
धूल फांकने को अभिशप्त ख़ुश्क जीवन के
फलों की बौर की गंध मरने के वक़्त की चिंता में
निश्चिंत पेट जीवन जियों के यहाँ ही अट सकती है
फल उगाने में लगे अदने मजूरों के मन मस्तिष्क में नहीं
कोयल की कूक किसे कितनों को मौज देती है
और कितनों को हूक, प्रश्न यह भी है
बच्चों की खुशी से चमकती आंखें भी हैं बेशक जीवन में
मग़र कविता में बच्चों की ऐंठी आँत और बुझी आँखों की
जगह ज्यादा है जो जीवन में नहीं है या काफी कम है
पत्नी के प्रेम से बिछोह का बिम्ब अगर
पत्नी पाने के ऐन युवा दिनों ही
कवि की कविता में आता है तो
यह आलोचना के वायस है
झंडों से सजा मेहनतकशों का जुलूस
जरूर एक सहानुभूत-आशा हो सकता है
मग़र कोई स्वानुभूत-आश्वासन हरगिज नहीं
कोरोना लॉक डाउन में अप्रवासी मजदूरों के
जत्थे पर जत्थे सड़कों पर बाल बच्चे बूढ़े बुजुर्गों संग रेंगते बदहवास हैं बेहाल हैं
और समुद्र पार से आती हुई मनुष्यता की जीत की
नई नई खबरों की चिंता करने में लगे हो कवि
खूब करो
पहले कुछ चिंता तो अपने घर की भी कर लो
जब मरोगे सब छूट जाएगा सबका छूट जाता है
पर मनुष्यता की कई जरूरी चिंताएं तो
तुम्हारे जातिग्रस्त जीवन से ही छूटी पड़ी हैं।
ऐ पारलौकिक जीवन के विश्वासी कवि
इहलोक के सुखों को नाहक ही गिनने में फँसे हो
गिनना ही है तो सुखों को गिनो, किये अपने पापों को गिनो
और मरने से पहले अपना परलोक तो पक्का करते जाओ!