मन
मन
मन उद्विग्न रहता है…
अधोपतन को,
आत्मा की वृत्ति के
विपरीत,
मन, आत्मा की पुकार को
सुनता कहाँ है…
अनकहे जज्बातों को सुनने की,
उसकी आदत नहीं…
पतझड़ के सुखे पत्ते की तरह,
गिरने को तैयार रहता है..
हर समय…
सांसारिक आसक्तियों,
तक ही सीमित है वह ..
रुह की गहराईयों तक जाने की,
उसकी आदत नहीं…
वो तो आत्मा ही है,जो हर क्षण,
तैयार रहता है,
अलौकिक पथ पर चलने को…
यदि सदगति चाहिए ,
तो फिर मन और आत्मा के बीच ,
बेतार संवाद स्थापित कीजिये…
मौलिक एवम स्वरचित
सर्वाधिकार सुरक्षित
© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – ०५/१०/२०२४ ,
आश्विन, शुक्ल पक्ष,तृतीया ,शनिवार
विक्रम संवत २०८१
मोबाइल न. – 8757227201
ई-मेल – mk65ktr@gmail.com