मन
मन
विचारों का अथाह सागर है मन!
विस्मृत भुली यादों का तरंग है मन!
झक्रंत होती बातों का ज्वार है मन!
भावविभोर से उमड़ती लहर है मन!…..
घटा बन छाने को व्याकुल है मन!
मन मयूरी नाचन को आतुर है मन!
बरबस घन बरसने को अब अधीर है मन!
बस!सब मन संशय छट जाये,ऐसा होये मन!….
निर्मलता की उस गगां में अब बहना चाहे मन
जो है सशंय मन से विमुख हो!आज ऐसा सम चाहे मन
जो दिखती झील सी आखों में बसे एक !वो चाहे मन
जोअंत:की निर्मलता जैसी समरसता रख बाहर चाहे मन…..
अपने आप से मुखातिब होना चाहे आज मन
संसार से विमुख हो खुल के जीना चाहे आज मन
दबी हुई बातों को सब आज खुल के कहना चाहे मन
कोई राज रहे न रहे मन में आज सब!वो कहना चाहें मन…..
मन मौजां हो हस्ती ऐसा चाहे मन
शांत बन छाया रहे ऐसा चाहे मन
मन से मन मिले बस!ऐसा चाहे मन
मन! देह मुक्त हो बस, ऐसा चाहे मन…..
स्वरचित कविता
सुरेखा राठी