“मन”
अस्थि मांस औ रक्तहीन,
बिजल सा मैं चंचल हूं,
स्वतंत्र हूं कहीं भी,
स्थिर नहीं रहता हूं।
रोक न सका कोई भी,
जिसके उत्पन्न तीव्र वेग को,
खामोश मस्तिष्क में भटक रहा,
देख चुके हैं,लोग जिसके तेज को।
साक्षी है मानव जीवन का,
जिसका असमान वैभव,
प्रकाश वेग से भी तेज,
अतुलनीय है जिसका उद्भव।।
राकेश चौरसिया