मन से गुजरती ट्रेन
ट्रेन मेरे लिए एक सफर तय करने का संसाधन मात्र नहीं थीं, इसकी रफ्तार के साथ मेरी जिंदगी की रफ्तार तय होती थी। उनींदी अवस्था में भी ट्रेन सपरट दौड़ा करती थी। ये मेरी दिनचर्या का हिस्सा थी।
बात उस समय की है जब नौकरी के लिए घर से कार्यक्षेत्र जाने के लिए मुझे प्रतिदिन आवागमन करना पड़ता था। सुबह चार बजे उठते ही सबसे पहले नजरें मोबाइल को ढूंढती थी और ट्रेन की लोकेशन को देखती कि कौन सी ट्रेन निर्धारित समय से चल रही है या विलंब से। उसी अनुसार घर के कार्यो का निर्धारण होता था और बच्चे भी उसी रफ्तार का हिस्सा बन गए थे। ट्रेन पकडने के प्रयास में कई बार चाय पीते-पीते छोड़ जाना और भागते हुए स्टेशन पहुंचना ये सब जिंदगी का हिस्सा बन गया था। जब ट्रेन निर्धारित समय पर रेलवे स्टेशन पहुंचती थी तब चेहरे पर एक चमक और सुकून छा जाता था। साथ चलने वाले दोस्त सफर को आसान बना देते थे। इस सफर के दौरान हमने एक खास बात सीख ली थी। भीड़ के बीच में भी अपने लिए जगह बना लेना। ट्रेन में चाहे जितनी भी भीड़ हो इस चुनौती का सामना तो करना ही पड़ता था। गर्मी में जब हांफते हुए भीड़ के बीच प्रवेश करते और सीट पर बैठने के लिए जगह दे देता तो वो व्यक्ति किसी फरिश्ते से कम नहीं लगता था। हमें ट्रेन के नंबर तो जैसे रट ही गए थे।
कई बार एक मिनट के देरी के चक्कर में आंखों के सामने से ट्रेन सरपट निकल जाती और कई बार स्टेशन पर उदघोषणा होते रहती कि ट्रेन पंद्रह मिनट लेट है लेकिन वो पंद्रह मिनट न जाने कब एक घंटे में तब्दील हो जाते थे और हमारे चेहरे पर बच्चों और घर के चिंता, शाम होने का भय स्पष्ट नजर आने लगता। ऐसी स्थिति में तो दोस्तों की बातों पर भी मन नहीं लगता था। बस घर की ही चिंता सताने लगती और बार-बार घर फोन करके बताना कि ट्रेन लेट हो गई। बच्चों को फोन पर ही उनके पास होने का अहसास दिलाना और कभी-कभी इस भागमभाग से मुंह फेरने को मन करता था।
पूरे सप्ताह हमें अवकाश का इंतजार रहता था। शनिवार का सफर कुछ आसान लगता था। अकसर रविवार से अधिक शनिवार राहत देता था क्योंकि इस दिन हम परिवार के साथ मन की जिंदगी जीते थे, छोटी-छोटी खुशियां एक दूसरे से बांटते और खूब खुश होते। रविवार शाम होते-होते फिर वही रफ्तार हमारी जिंदगी में शामिल हो जाया करती थी। इस सफर के दौरान अक्सर हम दोस्त यही बोलते कि कब इस भागमभाग से छुटकारा मिलेगा।
आज मुझे इस भागमभाग भरी जिंदगी से आराम है लेकिन फिर भी वो दोस्त, चुनौतीपूर्ण जीवन, खट्टे-मीठे अनुभव आज भी याद आते हैं। आज भी जब में कहीं सफर कर रही होती हूं और कोई प्रतिदिन आवागमन करने वाला व्यक्ति नजर आ जाता है तो मैं अपने आप अपनी जगह से थोड़ा सिमटकर बैठ जाती हूं…ये दौड, ये सफर मुझमें बहुत कुछ शिष्टाचार भी सिखा गया। आज भी यही महसूस होता है कि ट्रेन कहीं अंदर से होकर गुजर रही है।
कमला शर्मा