मन मेरा क्यों उदास है…..!
” हम सब पास-पास हैं ,
फिर क्यों…?
मन मेरा इतना उदास है…!
चांद और सूरज भी है आस-पास…
जो अनंत किरणों के है विन्यास…!
सुरम्य शाम और मनोरम सवेरा है…
फिर भी क्यों…? इतना अंधेरा है…!
हवाओं में मौज है, मस्ती है…
और एक अद्भुत तरंग भरी उमंग है…!
अनमोल प्रकृति की ,
अनुपम हरियाली भी मेरे संग है…!
सुर है, साज है, सरगम भरी,
मधुर, नई अंदाज है…!
सागर है, समंदर है, फिर क्यों..?
इतना प्यास है…!
पल-पल हर पल ख़ास है…
हर क्षण कितना लाजवाब है…!
फिर भी, मन मेरा क्यों…?
इतना उदास है…! ”
” माँ है…! ममता वही…
जनक है…! जानकी वही…!
प्रकृति वही, संस्कृति वही…
इंद्र-धनुश की सप्तरंग वही…!
राग में अंदाज वही…
फिर… मेरे मन में ,
क्यों…? उमंग नहीं…!
हर एक मौसम भी…
कितना खुश मिजाज़ है…
फिर भी मन मेरा क्यों…?
इतना उदास है…!
” जो तथ्य में निहित है…
वही सत्य के संग विहित है…!
जो दृष्टि में है…
वही प्रकृति की सृष्टि में है…!
हवाओं में भी…
मौज की एक रवानी है….!
हर घटना की,
एक अज़ब-गज़ब कहानी है…!
फिर….मेरे मन में, क्यों…?
आस नहीं…!
जीवन जीने का, क्यों…?
आज अंदाज नहीं…!
अद्भुत रचनाओं से भरमार…
और आपार, यह संसार…!
जहां सब कुछ है, साकार…
फिर…मेरे मन में भर पड़ा है, क्यों..?
इतना विकार…!
प्रकृति में भी एक क्रम है….
फिर मुझमें क्यों..? इतना भ्रम है….!
विधि है, विधाता है…!
निधि है, आपार समृद्धि भी है…
फिर…क्यों…?
मेरे मन में इतनी विकृति है…!
मेरा मन, मेरा तन,
मेरी आत्मा, मेरे पास हैं…!
फिर क्यों …..?
मन मेरा इतना उदास है…! ,”
शायद…!
” मेरे मन में एक आत्म विश्वास नहीं….! ”
” कल्पना है, पर एक संकल्प नहीं….! ”
” चित है, पर चिंतन नहीं…! ”
” सोच है, पर समझ नहीं…! ”
” नवीनता है, पर नमन नहीं…! ”
और शायद…
” मेरे मन में, एक शुद्ध विचार नहीं। ”
” मेरे मन में , एक शुद्ध विचार नहीं। ”
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