***मन में बहती रहे प्रेम की गंगा****
***मन में बहती रहे प्रेम की गंगा****
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मन में बहती रहे सदा प्रेम की गंगा।
तनबदन चुस्त तंदरुस्त और हो चंगा।
चिंगारी भड़के ही शोला बनती जाती,
जाति संप्रदायी धार्मिक न हो दंगा।
भूख गरीबी बेकारी नसीबों से परे हो,
बिना कपड़ों के कोई तन न हो नंगा।
खुद उलझा किसी को कैसे सुलझाए,
उलझन में फिरता रहे बुद्धि का कंघा।
एक कदम भी चलना हो जी मुश्किल,
कोई साथी मिले न हमें कभी बेढंगा।
जुबां में नरमी हृदय में रहम भरा हो,
जीवन में किसी से न हो कोई पंगा।
क्रोध अग्नि झुलसती मन मनसीरत,
प्रेम रंग में हर कोई हर दम हो रंगा।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)