मन के द्वीप
मन के द्वीप
ये कोई आसान सफ़र नहीं था की सिद्धार्थ बुद्ध बन गए । वो एक राजकुमार थे बचपन से बड़े नाज़ों प्यार से पाला था । उनके महल सभी सुविधाओं से लेस थे , राजसी ठाट बाट सुख सुविधा तमाम ऐश्वर्य से परिपूर्ण थे । एक सुंदर पत्नी ओर एक पुत्र । सरल था क्या इन सब को आधी रात को छोड़कर कायरों की तरह भाग जाना ।
उनका मन स्थिर नहीं था , वो पूर्ण सत्य जानना चाहते थे ,
लगभग आज से ढाई हजार साल से भी पहले की बात है, आधी रात में गौतम ने घर छोड़ दिया। राजमहल के राग-रंग, आमोद-प्रमोद, मनोरंजन से वे ऊब गए, रूपवती पत्नी का प्रेम और नवजात शिशु का मोह भी उन्हें महल और भोग-विलास की सीमाओं में नहीं बाँध पाया। कहते हैं, पहले एक रोगी को देखा, जिससे उन्हें पीड़ा का अनुभव हुआ, उसके बाद एक वृद्ध को, जिससे सुन्दर शरीर के जीर्ण हो जाने का एहसास हुआ, पहली बार जरा का अनुभव हुआ और फिर एक मृत शरीर को, देखते ही जीवन की नश्वरता ने उन्हें विचलित कर दिया। मन में प्रश्नों का सैलाब उमड़ पड़ा।
उनके प्रश्नो ने उन्हें बेचैन कर दिया ,ओर उनकी अंतस की पीड़ा बढ़ने लगी । उनके लिए राजसी सुख सुविधा का भोग कर पाना मुश्किल था ।वो अपने प्रश्नो के जवाब ढूँढने में लग गए सब कुछ त्याग कर एक भिक्षु बन गए । वो कई जगह भटकते रहे लेकिन पूरण सत्य प्राप्त नहीं हुआ । एक दिन नदी पार करते समय उन्हें बड़ी कठिनाई हो रही थी उन्हें लगा कि अब वो नहीं चल पाएँगे तभी उन्होंने एक बहती हुई शाखा का सहारा लिया ओर वही घंटो खड़े रहे तभी उन्हें अहसास हुआ कि जिस की तलाश उन्हें हे वो उनके अंदर ही हे
एक प्रकाश , एक बोध जो हर हाल में हमें तय्यार रखता हे । जब सारे विरोध समाप्त हों जाए , मन में शीतलता आ जाए , अपने भीतर पूर्ण रूप से स्वीकार की स्थिति बन जाए । उन्हें एहसास हुआ की में मिथ्या जगत में प्रश्नों का जवाब ढूँढ रहा हूँ ओर जवाब तो मेरे भीतर ही हे।
ओर वो हे परम चेतना , जब हम बाहरी फैलाव से अपने को समेटते हुए अपनी भीतरी दुनिया में प्रवेश करते हे तब हमें परम आनंद की प्राप्ति होती हे, जब हम बाहरी राग द्वेष, ईर्ष्या से विमुक्त होते जें तब हमारी आंतरिक यात्रा शुरू होती हे
ओर वही से बुद्ध का जनम होता हे
बुद्ध बनना इतना सहज नहीं हे जब हम बाहरी उलझनो ओर मिथ्या जगत से बाहर निकल पाएँगे तभी सत्य को खोज पाएँगे । सत्य क्या हे खुद की खुद से पहचान कराना ।ओर सिद्धार्थ ने यह जान लिया था , परम सत्य की प्राप्ति के बाद वो हमेशा मौन ओर परम आनंद में लीन रहते थे ओर यही से उनकी बुद्ध बनने की यात्रा शुरू हुईं। बोध धर्म के ये तीन मूल मंत्र हें।
बुद्धं सरणं गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
धम्मं सरणं गच्छामि : मैं धर्म की शरण लेता हूँ।
संघं सरणं गच्छामि : मैं संघ की शरण लेता हूँ ।
बोध धर्म में कहा गया ( 1दुःख हें) २ ( दुःख का कारण हे ) ३( इसे दूर किया जा सकता हे )
अंत में जब मन रूपी द्वीप जल जाएँगे तो समस्त अंधेरे समाप्त हो जाएँगे ।
आसान नहीं बुद्ध बन जाना
बहुत संघर्षों का करना पड़ता हे सामना, मिथ्या , कलुषित चीजों से जब पार हो पाओ , तब जाके बुद्ध तुम बन पाओं)
डॉ अर्चना मिश्रा