मन की व्यथा!!!!
मन चाहा
तब रो लिए!
प्रेम मिला
उसी के हो लिए!!
अपने सम
माना अन्य!
इसी से हम
हो गए धन्य!!
पाप इसी से
सारे धो लिए!!
प्रेम दिया
धोखा खाकर!
दुख न माना
इससे मुरझाकर!!
विश्वबंधुत्व के इसी से
अपने खेत बो लिए !!
इतना नहीं
रहा जुगाड!
किसी को भी
सकें हम उजाड!!
विरले अपने जैसे
जग टोह लिए!!
कौन किसी की
समझे परेशानी!
सभी करते हैं
यहां पर मनमानी!!
हमने बस यहां
मित्र पाए और खो लिए!!
–आचार्य शीलक राम–