मन की मनमानी से हारे,हम सब जग में बेचारे।
मन की मनमानी से हारे,हम सब जग में बेचारे।
चाहा बहुत संजोना सपने,पर दिल के हो गए किनारे।
मन की चंचल चालों में,फंसते जाते बारम्बार।
छोड़ दी हमने कोशिश सारी,अब बस बैठे हैं लाचार।
अरमानों के बंधन टूटे,आशाओं के पंख झरे।
मृगतृष्णा सी मृदु इच्छाएं,सपनों के सब रंग भरे।
” ऋतु राज मन के मीत को समझाने,कोशिश की बार-बार।
फिर भी उसकी जिद्द अटल, करता है दिल में प्रहार।
मन की मनमानी से हारे,हम सब जग में बेचारे।
फिर भी आशा की लौ जलाए,नवसृजन का कर सत्कार।
जीवन पथ पर चलते जाएं,छोड़ें मन का यह भार।
एक दिन अवश्य आएगा,सच होंगे सपनों के द्वार।
मन की मनमानी से हारे,हम सब जग में बेचारे।
पर अंततः जीत हमारी,सच्चाई से ना कोई हारे…!!!!