मन की डोर
कैसे बताऊं कि तुम कितना याद आते हो,
मेरे कोमल हृदय पर बेवक्त छा जाते हो ।
हम सुबह ठीक से उठ भी नहीं पाते,
और तुम याद बन हमें सताने चले आते हो ।
घर की कोई ऐसी दीवार नहीं जहां तुम्हारी यादें न हो,
हर कोने में तुम खुशबू बन बिखर जाते हो ।
मैं मेरी रसोई में चाहे पकवान कुछ भी बने हो,
जाने क्यों हर जायके में तुम ही झलक जाते हो।
चाहे जितना भी सवार लूं मैं खुद को,
तुम्हारी वो नजर ही मेरे श्रृंगार को पूरा बनाते हैं।
तकदीर ने भले ही जुदा किया हो हमें ,
मन की डोर हमें सदा जुड़ जाते हैं।
कभी तो खत्म होगी ये विरह वेदना,
बस उसी पल की हम ‘प्रतीक्षा’ किए जाते हैं ।
लक्ष्मी वर्मा ‘प्रतीक्षा’
खरियार रोड, ओड़िशा।