मन की गांठे
मन की गांठो की गठरी लिए
उम्र गुजार आए हम
अब बैठे है बेतकलुफ्फ से
खोलने अकड़ी हुई गांठो को
जमाने भर की धूल जमी है
खुलने को करती है मना, ये
गांठे जो जमाने से लगी हुई है।
आओ तुम भी ले आओ
कुछ दम गर रखते हो तो,
हाथो में अपने जो खोले
इन अकड़ी हुई गांठो को
आजमाते है चलो तुम्हारे हौसले
निधि।।।।