मन की अपूर्णता
मुझे नही पता कि
मैं भी हूँ या नहीं
पर मेरे पास तुम सदा के लिए हो
मैं तुम से प्रेम करती रही…
औऱ वो भी बिल्कुल साफ और
विशुद्ध प्रेम !
प्रेम करती रही दिल की अथाह गहराई से
तुम से सिर्फ तुम से !
क्योंकि मेरा प्रेम तो मुझ में भी अज्ञात है
मुझ ही में अज्ञात सा दबा सा
मुझ ही से मुझ ही में दबा सा
सिर्फ तुम्हारे लिए….
बताओ क्या कभी रूबरू हो सकते है हम
अभी तक तो बग़ैर तुम्हारे स्पर्श के ही
शुद्ध प्रेम करती आ रही सिर्फ तुम से
एकाकार होने की चाह से
हमेशा ,हमेशा के लिए ही
सर्वत्र जुड़ने के लिए ही आतुर सी
क्योंकि मैं …
प्रेम करती हूँ तुम से
तुम से विशुद्ध प्रेम करने के लिए
क्योंकि मैं वंचित रही हूँ
अथाह प्रेम से तुम से…
तुम्हारी यादें सपनों की अनंत लहरों पर
उठती रहती हैं प्रेम में
तुम्हारे सामीप्य को तरसती हुई सी
यादों के हिलोरे आने तक यादे क्योकि
प्रेम करती रही हूँ ना तुम से
स्वयं तक पहुँच पाने के लिए क्योकि
तुम ही मुझ में समाए हो तल तक
औऱ कमाल तुम दिखते नही हो साक्षात
मुझ में बसे हुए से प्रेम की सीमातल तक
नही हूं मैं बग़ैर तुम्हारी उपस्थिति के…!
कभी नही हूँ….
पूर्ण नही हूँ….
क्या कभी पूर्णता होगी…?